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________________ २० विसुद्धिमग्गो अभिसंस्कारक स्कन्धों सहित क्लेशों का परित्याग करता है; तथा संस्कृत-धर्मों का दोष देख कर तद्विपरीत असंस्कृत निर्वाण में प्रस्कन्दन अर्थात् प्रवेश करता है। ___ इस तरह १६ प्रकार से आनापानस्मृतिसमाधि की भावना की जाती है। चार-चार प्रकार का एक एक वर्ग है। अन्तिम वर्ग शुद्ध उपासना की रीति से उपदिष्ट हुआ है; शेष वर्ग शमथ तथा विपश्यना-दोनों रीतियों से उपदिष्ट हुए हैं। यह हम पहले ही बता आये हैं कि शमथ लौकिक समाधि को कहते हैं। विपश्यना एक प्रकार का विशिष्ट ज्ञान है, इसे लोकोत्तर समाधि भी कहते हैं। आनापानस्मृति भावना का जब परमोत्कर्ष होता है तब चार स्मृत्युपस्थापन का परिपूरण होता है। स्मृत्युपस्थापनाओं के सुभावित होने से सात बोध्यङ्गों (स्मृति, धर्मविचय, वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि, उपेक्षा) का पूरण होता है और इनके पूरण से मार्ग और फल का अधिगम होता है। इस भावना की विशेषता यह है कि मृत्यु के समय जब श्वास प्रश्वास निरुद्ध होते हैं, तब साधक मोह को प्राप्त नहीं होता। मरण समय के अन्तिम आश्वास प्रश्वास उसको विशद और विभूत होते हैं। जो साधक आनापानस्मृति की भावना भली प्रकार करता है उसको ज्ञात होता है कि मेरा आयु:संस्कार अब इतना अवशिष्ट रह गया है। यह जानकर वह अपना कृत्य सम्पादित करता है और शान्तिपूर्वक शरीर का परित्याग करता है। (९) १०. उपशमानुस्मृति-इस अनुस्मृति में साधक निर्वाण का चिन्तन करता है। वह एकान्त में समाहित चित्त से सोचता है कि जितने संस्कृत धर्म हैं, उन धर्मों में अग्र धर्म निर्वाण हैं। वह मद का निर्मर्दन है, पिपासा का विनयन है, आलय का समुद्धात है, वर्त (जन्मपरम्परा) का उपच्छेद है, तृष्णा का क्षय है, विराग है, निरोध है। इस प्रकार सर्वदुःखोपशम-स्वरूप निर्वाण का चिन्तन ही उपशमानुस्मृति है। भगवान् ने इसी के बारे में संयुत्तनिकाय में कहा है कि यह निर्वाण ही सत्य है, पार है, सुदुर्दर्श है, अजर, ध्रुव, निष्प्रपञ्च, अमृत, शिव, क्षेम, अव्यापाद्य और विशुद्ध है। निर्वाण ही दीप है, निर्वाण ही त्राण है। इस उपशमानुस्मृति से अनुयुक्त साधक सुख से सोता है, सुख से प्रतिबुद्ध होता है। इसके इन्द्रिय और मन शान्त होते हैं। वह प्रासादिक होता है और अनुक्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है। उपशम गुणों की गम्भीरता के कारण और अनेक गुणों का अनुस्मरण करने के कारण इस अनुस्मृति में अर्पणा ध्यान की प्राप्ति नहीं होती। केवल उपचार ध्यान की ही प्राप्ति होती है। (१०) ९. ब्रह्मविहारनिर्देश मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा चित्त की ये सर्वोत्कृष्ट और दिव्य चार अवस्थाएँ हैं। इनको ब्रह्मविहार कहते हैं। चित्तविशुद्धि के ये उत्तम साधन हैं। जीवों के प्रति किस प्रकार सम्यक् व्यवहार करना चाहिये इसका भी यह निदर्शन है। जो साधक इन चार ब्रह्मविहारों की भावना करता है उसकी सम्यक् प्रतिपत्ति होती है। वह सब प्राणियों के हित एवं सुख की कामना करता है। वह दूसरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा करता है। जो सम्पन्न है उनको देखकर वह प्रसन्न होता है, उनसे ईर्ष्या नहीं करता। सब प्राणियों के प्रति उनका समभाव होता है, किसी के साथ वह पक्षपात नहीं करता। संक्षेप में-इन चार भावनाओं द्वारा राग, द्वेष, ईर्ष्या, असूया आदि चित्त के मलों का क्षालन होता है। योग के अन्य परिकर्म (कर्मस्थान) केवल आत्महित के साधन हैं, किन्तु यह चार ब्रह्मविहार परहित के भी साधन हैं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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