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________________ अन्तरङ्गकथा चित्त किञ्चिन्मात्र भी लीन और उद्धत भाव को नहीं प्राप्त होता तथा स्थिर और समाहित होता है। ध्यान से उठकर साधक ध्यानसम्प्रयुक्त चित्त के क्षय धर्म को देखता है और उसे विपश्यना क्षण में चित्त के अनित्यता आदि लक्षणों का क्षण क्षण पर अवबोध होता है। इसे क्षणमात्र स्थायी समाधि उत्पन्न होती है। यह समाधि आलम्बन से एकाकार से निरन्तर प्रवृत्त होती मालूम पड़ती है और चित्त को निश्चल रखती है। १९ १२. चौथे प्रकार में प्रथम ध्यान द्वारा विघ्नों (नीवरण) से चित्त को मुक्त कर, द्वितीय द्वारा वितर्क विचार से मुक्त कर, तृतीय द्वारा प्रीति से मुक्त कर, चतुर्थ ध्यान द्वारा सुख-दुःख से चित्त को विमुक्त कर, साधक श्वास छोड़ने और लेने का अभ्यास करता है अथवा ध्यान से व्युत्थानकर ध्यानसम्प्रयुक्त चित्त के क्षय-धर्म का ग्रहण करता है और विपश्यनाक्षण में अनित्यभावदर्शी हो चित्त को नित्य संज्ञा से विमुक्त करता है अर्थात् साधक अनित्यता की परमकोटि 'भंग' का दर्शन कर संस्कार की अनित्यता का साक्षात्कार करता है। इसलिये संस्कृत धर्मों के सम्बन्ध में उसकी जो मिथ्या संज्ञा है, वह दूर हो जाती हैं। जिसका अनित्य भाव है वह दुःख है, सुख कदापि नहीं है; जो दुःख है वह अनात्मा है, आत्मा कभी नहीं है। इस ज्ञान द्वारा वह चित्त को सुखसंज्ञा और आत्मसंज्ञा से विमुक्त करता है। वह देखता है कि जो अनित्य, दुःख और अनात्मा है उसमें अभिरति और राग नहीं होना चाहिये। उसके प्रति साधक को निर्वेद और वैराग्य उत्पन्न होता है । वह चित्त को प्रीति और राग से विमुक्त करता है। जब साधक का चित्त संस्कृत-धर्मों से विरक्त होता है, तब वह संस्कारों का निरोध करता है, उन्हें उत्पन्न नहीं होने देता। इस प्रकार निरोधज्ञान द्वारा वह चित्त को उत्पत्तिधर्मसमुदय से विमुक्त करता है। संस्कारों का निरोध कर वह नित्य आदि आकार से उनका ग्रहण नहीं करता, वह उनका परित्याग करता है, वह क्लेशों का परित्याग करता है और संस्कृत-धर्मों का दोष देखकर तद्विपरीत असंस्कृत-धर्म निर्वाण में चित्त का प्रवेश करता है । तीसरा वर्ग भी चार प्रकार का है १३. पहले प्रकार में साधक अनित्यज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। पहले यह जानना चाहिये कि अनित्य क्या है ? अनित्यता क्या है ? अनित्य-दर्शन किसे कहते हैं ? और अनित्यदर्शी कौन है ? पञ्चस्कन्ध अनित्य हैं, क्योंकि इनके उत्पत्ति, विनाश, और अन्यथाभाव हैं। पञ्चस्कन्धों का उत्पत्ति-विनाश ही अनित्यता है। यह उत्पन्न होकर अभाव को प्राप्त होते हैं। उस आकार में उनकी अवस्थिति नहीं होती। उनका क्षण भङ्ग होता है । रूप आदि को अनित्य देखना त्यानुपश्यना है। इस ज्ञान से जो समन्वागत है, वह अनित्यदर्शी है। १४. दूसरे प्रकार में साधक विराग- ज्ञान के साथ श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। विराग दो हैं - १. क्षय विराग और २. अत्यन्त विराग । संस्कारों का क्षणभङ्ग क्षयविराग है। यह क्षणिक निरोध है । अत्यन्त विराग निर्वाण के अधिगम से संस्कारों का अत्यन्त, न कि क्षणिक, निरोध होता है। क्षय विराग के ज्ञान से विपश्यना और अत्यन्त विराग के ज्ञान से मार्ग की प्रवृत्ति होती है। १५. तीसरे प्रकार में साधक निरोधानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है । निरोध भी दो प्रकार का है- १. क्षयनिरोध और २. अत्यन्तनिरोध । १६. चौथे प्रकार में साधक प्रतिनिसर्गानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है। प्रतिनिसर्ग (= त्याग) भी दो प्रकार का है - १. परित्यागप्रतिनिसर्ग और २. प्रस्कन्दनप्रतिनिसर्ग। विपश्यना और मार्ग को प्रतिनिसर्गानुपश्यना कहते हैं। विपश्यना द्वारा साधक 2-2
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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