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________________ अन्तरङ्गकथा बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में इन्हें 'अप्रामाण्य' या 'अप्रमाण' भी कहा है; क्योंकि इनकी इयत्ता नहीं है। अपरिमाण जीव इन भावनाओं के आलम्बन होते हैं। मैत्रीभावना-जीवों के प्रति स्नेह और सुहृद्भाव प्रवर्तित करना मैत्री है। मैत्री की प्रवृत्ति परहितसाधन के लिये है। जीवों का उपकार करना, उनके सुख की कामना करना, द्वेष और द्रोह का परित्याग इसके लक्षण हैं। मैत्री भावना की सम्यक् निष्पत्ति से द्वेष का उपशम होता है। राग इसका आसन्न शत्रु है। राग के उत्पन्न होने से इस भावना का नाश होता है । मैत्री की प्रवृत्ति जीवों के शील आदि गुण ग्रहणवश होती है। राग भी गुण देखकर प्रलोभित होता है। इस प्रकार राग और मैत्री की समानशीलता है। इसलिये कभी कभी राग मैत्रीवत् प्रतीयमान हो प्रवञ्चना करता है। स्मृति का किञ्चिन्मात्र भी लोप होने से राग मैत्री को अपनीत कर आलम्बन में प्रवेश करता है। इसलिये यदि विवेक और सावधानी से भावना न की जाय तो चित्त के रागारूढ होने का भय रहता है। साधक को सदा स्मरण रखना चाहिये कि मैत्री का सौहार्द तृष्णा के कारण नहीं होता, किन्तु जीवों की हितसाधना के लिये होता है। राग लोभ और मोह के वश होता है; किन्तु मैत्री का स्नेह मोह के कारण नहीं होता, अपितु ज्ञानपूर्वक होता है। मैत्री का स्वभाव अद्वेष है और यह अलोभयुक्त होता है। (१) करुणाभावना-परदुःख को देखकर सत्पुरुषों के हृदय का जो कम्पन होता है उसे करुणा कहते हैं। करुणा की प्रवृत्ति जीवों के दुःख का अपनय करने के लिये होती है, दूसरों के दुःख को देखकर साधु पुरुष का हृदय करुणा से द्रवित हो जाता है। वह दूसरों के दुःख को सहन नहीं कर सकता, जो करुणाशील पुरुष हैं वह दूसरों की विहिंसा नहीं करता। करुणा भावना की सम्यग्निष्पत्ति से विहिंसा का उपशम होता है। शोक की उत्पत्ति से इस भावना का नाश होता है। शोक, दौर्मनस्य इस भावना के निकट शत्रु हैं। (२) मुदिता का लक्षण है-'हर्ष'। जो मुदिता की भावना करता है वह दूसरों को सम्पन्न देखकर हर्ष करता है, उनसे ईर्ष्या या द्वेष नहीं करता। दूसरों की सम्पत्ति, पुण्य और गुणोत्कर्ष को देखकर उसको असूया और अप्रीति नहीं उत्पन्न होती। मुदिता की भावना की निष्पत्ति से अरति का उपशम होता है, पर यह प्रीति संसारी पुरुष की प्रीति नहीं है। पृथग्जनोचित प्रीतिवश जो हर्ष का उद्वेग होता है उससे इस भावना का नाश होता है। मुदिता भावना में हर्ष का जो उत्पाद होता है उसका शान्त प्रवाह होता है। वह उद्वेग और क्षोभ से रहित होता है। (३) जीवों के प्रति उदासीन भाव उपेक्षा है। 'उपेक्षा' की भावना करने वाला साधक जीवों के प्रति सम-भाव रखता है, वह प्रिय या अप्रिय में कोई भेद नहीं करता। सबके प्रति उसकी उदासीनवृत्ति होती है। वह प्रतिकूल और अप्रतिकूल-इन दोनों आकारों का ग्रहण नहीं करता, इसीलिये उपेक्षा भावना की निष्पत्ति होने से विहिंसा और अनुनय दोनों का उपशम होता है। उपेक्षाभावना द्वारा इस ज्ञान का उदय होता है कि "मनुष्य कर्म के अधीन है, कर्मानुसार ही सुख से सम्पन्न होता है या दुःख से मुक्त होता है या प्राप्त सम्पत्ति से च्युत नहीं होता"। यही ज्ञान इस भावना का आसन्न कारण है। मैत्री आदि प्रथम तीन भावनाओं द्वारा जो विविध प्रवृत्तियाँ होती थीं उनका ज्ञान द्वारा प्रतिषेध होता है। पृथग्जनोचित अज्ञानवश उपेक्षा की उत्पत्ति से.इस भावना का नाश होता है। (४) ये चारों ब्रह्मविहार समान रूप से ज्ञान और सुगति के देने वाले हैं। मैत्रीभावभावना का विशेष कार्य द्वेष (=व्यापाद) का प्रतिघात करना है। करुणा-भावना का
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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