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________________ १५६ विसुद्धिमग्गो कतं अनरियं कम्मं परेन इति कुज्झसि। किं नु त्वं तादिसं येव यो सयं कत्तुमिच्छसि॥ दोसेतुकम्मो' यदि तं अमनापं परो करि। दोसुप्पादेन तस्सेव किं पूरेसि मनोरथं ॥ दुक्खं तस्स च नाम त्वं कुद्धो काहसि वा न वा। अत्तानं पनिदानेव कोधदुक्खेन बाधसि ॥ कोधन्धा अहितं मग्गं आरूळ्हा यदि वेरिनो। कस्मा तुवं पि कुज्झन्तो तेस येवानुसिक्खसि॥ यं दोसं तव निस्साय सत्तुना अप्पियं कतं। तमेव दोसं छिन्दस्सु, किमट्ठाने विहञ्जसि ॥ खणिकत्ता च धम्मानं येहि खन्धेहि ते कतं। अमनापं निरुद्धा ते कस्स दानीध कुज्झसि ॥ दुक्खं करोति यो यस्स तं विना कस्स सो करे। सयं पि दुक्खहेतु त्वमिति किं तस्स कुज्झसी" ति॥ १७. सचे पनस्स एवं अत्तानं ओवदतो पि पटिघं नेव वूपसम्मति, अथानेन अत्तनो जिन शीलों की रक्षा करते हो, उन्हीं की जड़ काटने वाले क्रोध को दुलराते हो! तुम्हारे जैसा जड़ (मूर्ख) कौन है? 'दूसरे के द्वारा अनुचित किया गया'-ऐसा सोचकर क्रोध कर रहे हो। किन्तु क्या तुम भी वैसे ही नहीं हो, जो कि स्वयं (अनुचित) करना चाहते हो? यदि दूसरे ने तुम्हें रुष्ट करने के लिये, अप्रिय (कर्म) किया, तो रुष्ट होकर उसी का मनोरथ क्यों पूर्ण कर रहे हो? क्रुद्ध होकर तुम उसे दुःख दोगे या नहीं (-यह तो अनिश्चित है); किन्तु स्वयं को तो क्रोधरूपी दुःख से पीड़ित कर रहे हो! यदि वैरी क्रोध से अन्धे होकर अहितकर मार्ग पर चल रहे हैं, तो तुम भी किस लिये क्रोध करते हुए उन्हीं का अनुसरण कर रहे हो? तुम्हारे प्रति जिस क्रोध के कारण शत्रु ने तुम्हारा अप्रिय किया, उस क्रोध को ही नष्ट कर दो। व्यर्थ परेशान क्यों होते हो? धर्म क्षणिक हैं। अत: जिन स्कन्धों द्वारा तुम्हारे प्रति अप्रिय किया गया, वे तो निरुद्ध हो चुके! अब किस पर क्रोध कर रहे हो? यदि कोई किसी को दुःखी करता है, तो उस (दुःख पाने वाले) के अभाव में किसे वैसा करेगा? (इस तरह तो) तुम स्वयं भी दुःख (की उत्पत्ति) के लिये हेतु (आवश्यक शर्त) हो। तब उस पर क्रोध क्यों करते हो? १. दोसेतुकामो ति। कोधं उप्पादेतुकामो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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