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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १५७ च परस्स च कम्मस्सकता' पच्चवेक्खितब्बा। तत्थ अत्तनो ताव एवं पच्चवेक्खितब्बा"अम्भो, त्वं तस्स कुद्धो किं करिस्ससि? ननु तवेव चेतं दोसनिदानं कम्मं अनत्थाय संवत्तिस्सति! कम्मस्सको हि त्वं कम्मदायादो कम्मयोनि कम्मबन्धु कम्मपटिसरणो, यं कम्म करिस्ससि तस्स दायादो भविस्ससि। इदं च ते कम्मं नेव सम्मासम्बोधिं, न पच्चेकबोधिं, न सावकभूमिं, न ब्रह्मत्त-सक्कत्त-चक्कवत्ति-पदेसराजादिसम्पत्तीनं अवतरं सम्पत्तिं साधेतुं समत्थं, अथ खो सासनतो चावेत्वा विघासादादिभावस्स चेव नेरयिकादिदुक्खविसेसानं च ते संवत्तनिकमिदं कम्म। सो त्वं इदं करोन्तो उभोहि हत्थेहि वीतच्चिके वा अङ्गारे, गूथं वा गहेत्वा परं पहरितुकामो पुरिसो विय अत्तानमेव पठमं दहसि चेव दुग्गन्धं च करोसी" ति।। एवं अत्तनो कम्मस्सकतं पच्चवेक्खित्वा परस्स पि एवं पच्चवेक्खितब्बा-"एसो पि तव कुज्झित्वा किं करिस्सति? ननु एतस्सेवेतं अनत्थाय संवत्तिस्सति! कम्मस्सको हि अयमायस्मा कम्मदायादो...पे०...यं कम्मं करिस्सति तस्स दायादो भविस्सति । इदं चस्स कम्म नेव सम्मासम्बोधिं, न पच्चेकबोधिं, न सावकभूमि, न ब्रह्मत्त-सक्कत्त-चक्कवत्ति-पदेसराजादिसम्पत्तीनं अञ्जतरं सम्पत्तिं साधेतुं समत्थं, अथ खो सासनतो चावेत्वा विघासादादिभावस्स चेव नेरयिकादिदुक्खविसेसानं चस्स संवत्तनिकमिदं कम्म। स्वायं इदं करोन्तो पटिवाते ठत्वा परं रजेन ओकिरितुकामो पुरिसो विय अत्तानं येव ओकिरति। वुत्तं हेतं भगवता १७. किन्तु यदि स्वयं को यों समझाने पर भी प्रतिघ शान्त न हो, तो उसे यह विचार करना चाहिये कि कर्म चाहे अपने हों या दूसरे के, कर्ता की सम्पत्ति हैं। स्वयं के विषय में यों विचार करना चाहिये-"अरे! तुम उसके प्रति क्रोध करके क्या करोगे? क्योंकि द्वेष के कारण हुआ यह कर्म तुम्हारे ही अनर्थ का हेतु होगा। तुम तो अपने कर्म के स्वामी, कर्मदायाद (फल के अधिकारी), कर्मयोनि, कर्मबन्धु, कर्मप्रतिशरण हो। जो कर्म करोगे, उसका फल पाओगे। तुम्हारा यह कर्म न सम्यक्सम्बोधि, न प्रत्येकबोधि, न श्रावकभूमि, न ब्रह्मत्व, न शक्रत्व, न चक्रवर्ती, न प्रादेशिक राजा आदि (पद-) सम्पत्तियों में से किसी भी सम्पत्ति की प्राप्ति करा सकता है। प्रत्युत धर्म से च्युत कराकर, उच्छिष्टभक्षी आदि बनाने वाला तथा विशेष नारकीय दुःखों की प्राप्ति कराने वाला है। तुम ऐसा करते हुए, दोनों हाथों में धधकते हुए अङ्गारे या मल को लेकर दूसरों पर फेंकने की इच्छा करने वाले पुरुष के समान, स्वयं को ही जलाओगे या दुर्गन्धित बनाओगे।" इस प्रकार यह विचार कर कि धर्म अपनी सम्पत्ति है, अन्य के विषय में भी यों सोचना चाहिये __ "यह भी तुम पर क्रोध करके क्या करेगा? क्या इससे उसी की हानि नहीं होगी? इसका यह कर्म न सम्यक्सम्बोधि, न प्रत्येकबोधि, न श्रावकभूमि, न ब्रह्मत्व, न शक्रत्व, न चक्रवर्ती, न प्रादेशिक राजा आदि (पद-) सम्पत्तियों में से किसी सम्पत्ति को प्राप्त कराने में समर्थ है, अपितु धर्म से च्युत कराकर, उसे उच्छिष्टभक्षी आदि बनाने वाला तथा विशेष नारकीय दुःखों की प्राप्ति कराने वाला है। इस प्रकार करते हुए वह प्रतिकूल हवा में खड़े होकर दूसरे पर धूल उड़ाने की इच्छा करने वाले पुरुष के समान अपने पर ही (धूल) उड़ाता है, क्योंकि भगवान् ने कहा है१. कम्ममेव सकं सन्तकं धनं यस्सा ति कम्मस्सको, तस्स भावो कम्मस्सकता।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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