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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १५५ निरयपरिपूरको भविस्सती" ति कारु उपट्टपेतब्बं । कारु पि हि पटिच्च आघातो वूपसम्मति । (४) एकच तो पि धम्मा वूपसन्ता होन्ति, तस्स यं यं इच्छति, तं तं अनुस्सरितब्बं । तादिसे हि पुग्गले न दुक्करा होति मेत्ताभावना ति । (५) इमस्स च अत्थस्स आविभावत्थं - "पञ्चिमे, आवुसो, आघातपटिविनया । यत्थ भिक्खुनो उप्पन्नो आघातो सब्बसो पटिविनोदेतब्बो" (अं० नि० २ / ५५४) ति इदं पञ्चकनिपाते आघातपटिविनयसुत्तं वित्थारेतब्बं । १६. सचे पनस्स एवं पि वायमतो आघातो उप्पज्जति येव, अथानेन एवं अत्ता ओवदितब्बो कत्तुमिच्छसि ॥ रुदम्मुखं । " अत्तनो विसये दुक्खं कतं ते यदि वेरिना । किं तस्साविसये दुक्खं सचित्ते बहूपकारं हित्वान जतिवग्गं महानत्थकरं कोधं सपत्तं न जहासि किं ॥ यानि रक्खसि सीलानि तेसं मूलनिकन्तनं । कोधं नामुपलाळेसि को तया सदिसो जळो ॥ दिनों बाद यह आठ महानरकों, सोलह 'उत्सद '३ (ऊपर उठे हुए) नरकों को प्राप्त करेगा *"करुणा करनी चाहिये, क्योंकि करुणा के कारण भी वैर भाव शान्त हो जाता है । (४) किसी के ये तीनों ही धर्म शान्त होते हैं। उसके विषय में, जिस जिस को चाहे उस उस का अनुस्मरण करना चाहिये। वैसे व्यक्ति पर मैत्री भावना करना कठिन नहीं है । (५) इसका अभिप्राय स्पष्ट करने के लिये अंगुत्तरनिकाय के पञ्चक निपात में आये इस आघातप्रतिविनयसूत्र का विस्तार (पूर्वक व्याख्यान) करना चाहिये 44 'आयुष्मन्, वैर-भाव को दूर करने वाले ये पाँच हैं, जिनसे भिक्षु का उत्पन्न वैर-भाव सर्वथा दूर किया जा सकता है।" (अं० नि० २/५५४) । १६. यदि इस प्रकार प्रयास करने पर भी वैर भाव उत्पन्न हो, तो उसे स्वयं को यों समझना चाहिये यदि वैरी ने अपने विषय (अधिकार - क्षेत्र) में तुम्हें दुःख दिया, तो तुम क्यों अपने चित्त को (क्रोध करते हुए) दुःखी करना चाहते हो, जो कि उस (वैरी) का विषय नहीं है ? ( श्रमण धर्म के पालन हेतु) तुमने अपने प्रति उपकारी, रोते- कलपते सगे-सम्बन्धियों को त्याग दिया। तब महाअनर्थकारी इस अपने शत्रु क्रोध को क्यों नहीं छोड़ देते ? १. तत्थ सजीवादयो अट्ठ महानिरया । अवीचिमहानिरयस्स द्वारे द्वारे चत्तारो चत्तारो कत्वा कुक्कुळादयो सोस उस्सदनिरया । २. आठ महानरक ये हैं - १. सञ्जीव, २. कालसूत्र, ३. संघात, ४. रौरव, ५. महारौरव, ६. तापन, ७. महातापन एवं ८. अविचि । * ३. सोलह उत्सद नरक ये हैं-अवीचि महानरक के प्रत्येक द्वार पर चार चार करके कुक्कुल आदि सोलह ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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