SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विसुद्धिमग्गो एकच्चस्स वचीसमाचारो व उपसन्तो होति, उपसन्तभावो चस्स सब्बजनेन जायति । सोहि पकतिया व पटिसन्थारकुसलो होति सखिलो सुखसम्भासो सम्मोदको उत्तानमुखो पुब्बभासी, मधुरेन सरेन धम्मं ओसारेति, परिमण्डलेहि पदब्यञ्जनेहि धम्मकथं कथेति । कायसमाचार-मनोसमाचारा पन अवूपसन्ता होन्ति । तस्स ते अचिन्तेत्वा वचीसमाचारवूपसमो येव अनुस्सरितब्बो। (२) एकच्चस्स मनोसमाचारो व उपसन्तो होति, उपसन्तभावो चस्स चेतियवन्दनादीसु सब्बजनस्स पाकटो होति। यो हि अवूपसन्तचित्तो होति, सो चेतियं वा बोधिं वा थेरे वा वन्दमानो न सक्कच्वं वन्दति, धम्मसवनमण्डपे विक्खित्तचित्तो वा पचलायन्तो वा निसीदति । उपसन्तचित्तो पन ओकप्पेत्वा वन्दति, ओहितसोतो अट्ठि कत्वा कायेन वा वाचाय वा चित्तप्पसादं करोन्तो धम्मं सुणाति । इति एकच्चस्स मनोसमाचारों व उपसन्तो होति, कायवचीसमाचारा अवूपसन्ता होन्ति, तस्स ते अचिन्तेत्वा मनोसमाचारवूपसमो येव अनुसरितब्बो । (३) एकच्चस्स पन इमेसु तीसु धम्मेसु एको पि अवूपसन्तो होति, तस्मि पुग्गले "किञ्चपि एस इदानि मनुस्सलोके चरति, अथ खो कतिपाहस्स अच्चयेन अट्ठमहानिरयसोळसउस्सदहोते हैं। उसके उन कर्मों का चिन्तन न करते हुए, केवल कायिक कर्म का ही अनुस्मरण करना चाहिये । (१) किसी का वाचिक कर्म ही शान्त होता है, एवं उसका शान्तभाव सभी के द्वारा जाना जाता है; क्योंकि वह स्वभाव से ही कुशलक्षेम पूछने वाला, मृदुभाषी, जिससे बात करना अच्छा लगे ऐसा, स्वागत करने वाला, जिसकी मुखाकृति से समर्थन का भाव झलकता हो ऐसा, तथा अपनी ओर से बात चीत आरम्भ करने वाला होता है। मधुर स्वर से धर्म का पाठ करता है । सुप्रसिद्ध उद्धरणों तथा विस्तार के साथ धर्म की व्याख्या करता है। किन्तु (उसके ) कायिक और मानसिक कर्म अशान्त होते हैं। उसके उन ( कर्मों) का चिन्तन न करते हुए, शान्त वाचिक कर्म का ही अनुस्मरण करना चाहिये । (२) १५४ किसी किसी का मानसिक कर्म ही शान्त होता है, एवं उसका शान्तभाव सभी के द्वारा, चैत्य की वन्दना आदि ( के समय) में जाना जाता है। क्योंकि जिसका चित्त अशान्त होता है, वह चैत्य, बोधि (-वृक्ष) या स्थविरों की वन्दना करते समय सत्कारपूर्वक वन्दना नहीं करता । धर्मश्रवण (हेतुनिर्मित) मण्डप में विक्षिप्त चित्त या चञ्चल होकर बैठता है। किन्तु शान्तचित्त पुरुष दत्तचित्त होकर वन्दना करता है। कान लगाकर, अर्थ को समझते हुए तथा काय या वचन से चित्त की प्रसन्नता (प्रकट) करते हुए धर्मश्रवण करता है। इस प्रकार किसी का मानसिक कर्म ही शान्त होता है, कायिक एवं वाचिक कर्म अशान्त होते हैं। उसके उन कर्मों का चिन्तन न करते हुए, शान्त मानसिक कर्म का ही अनुस्मरण करना चाहिये। (३) इन तीनों धर्मों (कर्मों) में से किसी का एक भी शान्त नहीं होता। उस व्यक्ति के विषय में, यह सोचकर कि " यद्यपि यह इस समय मनुष्य लोक में विचरण कर रहा है, तथापि कुछे
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy