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________________ १५० विसुद्धिमग्गो पाणा..सब्बे भूता...सब्बे घुग्गला...सब्बे अत्तभावपरियापन्ना अवेरा अब्यापज्झा अनीघा सुखी अत्तानं परिहरन्तू" (खु० नि० ५/३७९) ति आदि वुत्तं। ' यं च मेत्तसुत्ते "सुखिनो व खेमिनो होन्तु। सब्बे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता" (सु० नि० १४५-१४७) ति आदि वुत्तं, त विरुज्झति। न हि तत्थ अत्तनि भावना वुत्ता ति चे? तं च न विरुज्झति। कस्मा? तं हि अप्पनावसेन वुत्तं, इदं सक्खिभाववसेन।। सचे पि हि वस्ससतं वस्ससहस्सं वा "अहं सुखितो होगी" ति आदिना नयेन अत्तनि मेत्तं भावेति, नेवस्स अप्पना उप्पज्जति। "अहं सुखितो होमी" ति भावयतो पन यथा अहं सुखकामो दुक्खपटिक्कूलो जीवितुकामो अमरितुकामो च, एवं अजे पि सत्ता ति अत्तानं सक्खि कत्वा अज्ञसत्तेसु हितसुखकामता उप्पजति। ९. भगवता पि"सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा नेवझगा पियतरमत्तना क्वचि। एवं पियो पुथु अत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो" (सं० नि० १/१२६) ति वदता अयं नयो दस्सितो। १०. तस्मा सक्खिभावत्थं पठमं अत्तानं मेत्ताय फरित्वा तदनन्तरं सुखप्पवत्तनत्थं य्वायं पियो मनापो गरु भावनीयो आचरियो वा आचरियमत्तो वा उपज्झायो वा उपज्झायमत्तो वा, तस्स दानपियवचनादीनि पियमनापत्तकारणानि सीलसुतादीनि गरुभावनीयत्तकारणानि च अनुस्सरित्वा "एस सप्पुरिसो सुखी होतु निढुक्खो" ति आदिना नयेन मेत्ता भावतब्बा। पुद्गल...सभी व्यक्ति वैररहित, हानिरहित...अशान्तिरहित हों, सुखपूर्वक जियें" (खु० ५/३७९) आदि कहा गया है, एवं जो मेत्तसुत्त में-"सुखी हों, उनका कल्याण हो, सभी सत्त्व मन से सुखी हों" (सु० नि० १४५ गा०) आदि कहा गया है, उसका विरोध होगा; क्योंकि इन (उद्धरणों) में तो स्वयं के प्रति यह भावना करने का उल्लेख नहीं है? समाधान-उसका विरोध नहीं होगा। क्यों? क्योंकि वह अर्पणा के विषय में कहा गया है, एवं यह (स्वयं को) साक्षी (उदाहरण) बनाने के विषय में। क्योंकि सौ वर्ष या हजार वर्ष तक भी "मैं सुखी होऊँ" आदि प्रकार से स्वयं के प्रति मैत्री-भावना करते रहने पर भी उसे अर्पणा उत्पन्न नहीं होती। किन्तु "मैं सुखी होऊँ" यो भावना करते रहने पर "जैसे मैं सुख चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता, वैसे ही अन्य सत्त्व भी"-यों स्वयं को उदाहरण बनाकर अन्य सत्त्वों के प्रति भी हितसुख की कामना उत्पन्न होती है। ९. भगवान् ने भी-"सभी दिशाओं में चित्त से जाकर (विचारकर), स्वयं से बढ़कर प्रिय किसी को भी नहीं पाया। इसी प्रकार, पृथक् पृथक् दूसरों को भी अपनी अपनी आत्मा प्रिय है। अतः स्वार्थ के लिये दूसरे की हिंसा न करें"। (सं० नि० १/१२६) -इस प्रकार कहते हुए इस नय को दिखलाया है। १०. अतः पहले स्वयं को उदाहरण बनाकर मैत्री का विस्तार करे, तत्पश्चात् (भावना में) सुविधा की दृष्टि से, जो उसके प्रिय, अभीष्ट, गौरव के पात्र, भावना करने योग्य आचार्य या आचार्य
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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