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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १५१ __११. एवरूपे च पुग्गले कामं अप्पना सम्पजति। इमिना पन भिक्खुना तावतकेनेव तुढेि अनापज्जित्वा सीमासम्भेदं कत्तुकामेन तदनन्तरं अतिप्पियसहायके, अतिप्पियसहायकतो मज्झत्ते, मज्झत्ततो वेरिपुग्गले मेत्ता भावेतब्बा। भावेन्तेन च एकेकस्मि कोट्ठासे मुदुं कम्मनियं चित्तं कत्वा तदनन्तरे तदनन्तरे उपसंहरितब्बं । १२. यस्स पन वेरिपुग्गलो वा नत्थि, महापुरिसजातिकत्ता वा अनत्थं करोन्ते पि परे वेरिसा व नुप्पजति, तेन "मज्झत्ते मे मेत्ताचित्तं कम्मनियं जातं, इदानि नं वेरिम्हि उपसंहरामी' ति ब्यापारो व न कातब्बो। यस्स पन अत्थि, तं सन्धाय वुत्तं-"मज्झत्ततो वेरिपुग्गले मेत्ता भावेतब्बा" ति। १३. सचे पनस्स वेरिम्हि चित्तं उपसंहरतो तेन कतापराधानस्सरणेन पटिघं उप्पजति, अथानेन पुरिमपुग्गलेसु यत्थ कत्थचि पुनप्पुनं मेत्तं समापज्जित्वा वुट्ठहित्वा पुनप्पुनं तं पुग्गलं मेत्तायन्तेन पटिघं विनोदेतब्बं । सचे एवं पि वायमतो न निब्बाति, अथ ककचूपमओवादआदीनं अनुसारतो। . पटिघस्स पहानाय घटितब्बं पुनप्पुनं ॥ के समान, उपाध्याय या उपाध्याय के समान हों, उनके (द्वारा किये गये) दान, प्रियवचन आदि का जो कि प्रिय, एवं अभीष्ट हैं; तथा शील, श्रुत आदि का, जो कि गौरव के पात्र बनाने वाले हैं, अनुस्मरण करते हुए-"ये सत्पुरुष सुखी हों, दुःखरहित हों"-आदि प्रकार से मैत्री-भावना करनी चाहिये। ११. ऐसे व्यक्ति में भावना करने से यद्यपि अर्पणा प्राप्त होती है, तथापि इस भिक्षु को केवल इतने से ही सन्तुष्ट न होते हुए, इस सीमा से आगे जाने की इच्छा से, इसके बाद घनिष्ठ मित्र में, (पुनः) घनिष्ठ मित्र के रूप में (स्वीकार करते हुए) मध्यस्थ में, एवं (तत्पश्चात्) मध्यस्थ के रूप में वैरी व्यक्ति में भावना करनी चाहिये। एवं भावना करने वाले को प्रत्येक भाग (आलम्बन) में चित्त को मृदु एवं कर्मण्य बनाकर ही एक से दूसरे की तरफ प्रगति करनी चाहिये। १२. किन्तु जिसका कोई वैरी है ही नहीं या जो महापुरुषों के समान होने से हानि पहुंचाने वाले को भी वैरी नहीं मानता, उसे यह प्रयास ही नहीं करना चाहिये कि-"मध्यस्थ में मेरा मैत्रीचित्त कर्मण्य हो चुका, अब इसे वैरी में ले जाऊँगा।" किन्तु जिसका (वैरी) है, उसके लिये कहा गया है कि "मध्यस्थ के रूप में वैरी पुरुष में मैत्री-भावना करनी चाहिये।" १३. यदि वैरी में चित्त को ले जाते समय उसके द्वारा किये गये अपराध का अनुस्मरण करने से इस (योगी) में प्रतिघ (हानि पहुँचाने की इच्छा) उत्पन्न हो जाय, तो इसे चाहिये कि पूर्व (उक्त) (प्रिय आदि) व्यक्तियों में से किसी में बार बार मैत्री की समापत्ति करे। फिर (समापत्ति से) उठकर बार बार उस (वैरी) व्यक्ति पर मैत्री करते हुए प्रतिघ (द्वेष) का नाश करे। १. सीमासम्भेदं ति। मरियादापनयनं। अत्ता पियो मज्झत्तो वेरी ति विभागाकणं ति अत्थो। २. अनुसारता ति। अनुगमनतो। पच्चवेक्खणतो ति अत्थो। ३. घटितब्बं ति। वायमितब्बं । 2-12
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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