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________________ ब्रह्मविहारनिद्देस ६. कालङ्कते पन भावेन्तो नेव अप्पनं, न उपचारं पापुणाति । अञ्ञतरो किर दहरभिक्खु आचरियं आरब्भ मेत्तं आरभि । तस्स मेत्ता नप्पवत्तति । सो महाथेरस्स सन्तिकं गन्त्वा "भन्ते, पगुणा व मे मेत्ताझानसमापत्ति, न च नं समापज्जितुं सक्कोमि, किं नु खो कारणं ?" ति आह । थेरो "निमित्तं, आवुसो, गवेसाही" ति आह । सो गवेसन्तो आचरियस्स मतभावं ञत्वा अञ आरब्भ मेत्तायन्तो समापत्तिं अप्पेसि । तस्मा कालङ्कते न भावेतब्बा व । " ७. सब्बपठमं पन ‘“अहं सुखितो होमि निद्दुक्खो" ति वा, “अवेरो अब्यापज्झो अनीघो सुखो अत्तानं परिहरामी" ति वा एवं पुनप्पुनं अत्तनि येव भावेतब्बा | ८. एवं सन्ते यं विभङ्गे वुत्तं - " कथं च भिक्खु मेत्तासहगेतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति ? सेय्यथापि नाम एकं पुग्गलं पियं मनापं दिस्वा मेत्तायेय्य, एवमेव सब्बे सत्ते मेत्ताय फरतो" (अभि० २ / ३२७) ति । १४९ यं च पटिसम्भिदायं - " कतमेहि पञ्चहाकारेहि अनोधिसोफरणा मेत्ता चेतोविमुत्ति भावेतब्बा ? सब्बे सत्ता अवेरा होन्तु, अब्यापज्झा अनोघा सुखी अत्तानं परिहरन्तु । सब्बे है। किसी अमात्यपुत्र ने कुलूपग स्थविर से पूछा - " भन्ते! किसमें मैत्री की भावना करनी चाहिये ?" स्थविर ने कहा - " प्रिय व्यक्ति में"। उसे अपनी भार्या प्रिय थी, अतः उसमें मैत्री की भावना करते हुए वह सारी रात भित्तियुद्ध' करता रहा । इसलिये असमान लिङ्ग के व्यक्ति-विशेष के प्रति भावना नहीं करनी चाहिये । ६. मृतक के प्रति भावना करने वाला न तो अर्पणा एवं न उपचार ही प्राप्त कराता है। किसी तरुण भिक्षु ने (मृत) आचार्य के प्रति मैत्री भावना का आरम्भ किया, परन्तु उसे मैत्री प्राप्त नहीं हुई। उसने महास्थविर के पास जाकर कहा - " भन्ते! मैं मैत्री द्वारा ध्यान-समापत्ति से सुपरिचित हूँ, किन्तु (इस बार ) उसे प्राप्त नहीं कर सका। क्या कारण है?" स्थविर ने कहा - " आयुष्मन्, निमित्त के बारे में पता लगाओ।" पता लगाने पर उसने यह जानकर कि आचार्य मृत हो चुके हैं, किसी अन्य के प्रति मैत्री भावना करते हुए समापत्ति प्राप्त की। इसलिए मृतक के प्रति मैत्रीभावना नहीं करनी चाहिये । ७. सर्वप्रथम, "मैं सुखी होऊँ, दुःखरहित होऊँ" या "मैं वैररहित, हानिरहित, अशान्तिरहित, सुखी होकर जीऊँ" - यों पुनः पुनः स्वयं के प्रति ही भावना करनी चाहिये । ८. आपत्ति : यदि ऐसा है, तो जो विभङ्ग में कहा गया है - "कैसे भिक्षु मैत्रीसहगतचित्त का एक दिशा में विस्तार कर विहार करता है ? जैसे कोई व्यक्ति प्रिय, मनोहारी विषय को देखकर मैत्री करे, वैसे ही सभी व्यक्तियों के प्रति मैत्री का विस्तार होता है" (अभि० २/३२७) एवं जो पटिसम्भिदामग्ग में "किन पाँच प्रकार के सर्वव्यापी मैत्री - चेतोविमुक्ति की भावना करनी चाहिये ? सभी सत्त्व वैररहित हों, हानिरहित हों, अशान्तिरहित हों, सुखपूर्वक जियें । सभी प्राणी... सभी भूत... सभी १. इस मैत्री भावना से उत्पन्न राग के कारण उसे पत्नी से मिलने की प्रबल इच्छा हुई । किन्तु उस प्रेमान्ध को यह भान ही नहीं रहा कि द्वार किधर है! अतः दीवार में छेद कर जाने की इच्छा से दीवार पर प्रहार करता रहा- टीका ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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