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________________ अनुस्पतिकम्मट्ठाननिद्देसो १४५ तस्मा वट्टुपच्छेदो ति वुच्चति । यस्मा पन तं आगम्म सब्बसो तहा खयं गच्छति विरज्जति निरुज्झति च तस्मा तण्हक्खयो विरागो निरोधो ति वुच्चति । यस्मा पनेस चतस्सो योनियो पञ्च गतियो ? सत्त वित्राणद्वितियो ? नव च सत्तावासे अपरापरभावाय विननतो आबन्धनतो संसिब्बनतो वानं ति लद्धवोहाराय तण्हाय निक्खन्तो निस्सटो विसंयुत्तो, तस्मा निब्बानं ति वुच्चतीति । 44 ७८. एवमेतेसं मदनिम्मदनतादीनं गुणानं वसेन निब्बानसङ्घातो उपसमो अनुस्सरितब्बो | ये वा पन पि भगवता - ' "असङ्घतं च वो भिक्खवे, देसिस्सामि सच्चं च... पारं च... सुदुद्दसं च... अजरं च .... धुवं च... निप्पपश्ञ्चं च... अमतं च... सिवं च... खेमं च... अब्भुतं च... अनीतिकं च.. अब्यापज्झं च... विसुद्धिं च... दीपं च.. ताणं च... लेणं च वो, भिक्खवे, देसिस्सामी" (सं० नि० ३/३१२-३२० ) ति आदीसु सुत्तेसु उपसमगुणा वुत्ता, तेसं पिवसेन अनुसरितब्बो येव । तस्सेवं मदनिम्मदनतादिगुणवसेन उपसमं अनुस्सरतो "नेव तस्मि समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति, न दोस... न मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति । उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति उपसमंं आरब्भा" ति बुद्धानुस्सतिआदीसु वुत्तनयेनेव विक्खम्भितनीवरणस्स एकक्खणे पञ्चकामगुणों के आलय (आश्रय, अर्थात् राग ) नष्ट हो जाते हैं, अतः आलयसमुग्धातो कहा जाता है। क्योंकि उसकी प्राप्ति से तीनों भवों का चक्र छिन्न भिन्न हो जाता है, अतः वट्टुपच्छेदो कहा जाता है। क्योंकि उसकी प्राप्ति से सब प्रकार से ( आत्यन्तिक रूप से) तृष्णा का क्षय हो जाता है, वह विराग को प्राप्त होती है, निरुद्ध होती है, अतः तण्हक्खयो विरागो निरोधो कहा जाता है। एवं क्योंकि यह चार (अण्डज, जरायुज, स्वेदज, औपपातिक) योनियों, पाँच ( नरक, तिर्यक्, प्रेत, मनुष्य, देवता) गतियों, सात विज्ञान की स्थितियों, नौ सत्त्वावासों को एक दूसरे से बाँधते हुए, सीते हुए, 'वान' कही जाने वाली तृष्णा से निकला हुआ, उसे त्यागा हुआ, विसंयुक्त हुआ है; अतः निब्बानं कहा जाता है। ७८. यों इन 'मद को नष्ट करने वाले' आदि गुणों के अनुसार, 'निर्वाण' कहे जाने वाले उपशम का अनुस्मरण करना चाहिये। भगवान् ने जो अन्य भी - " भिक्षुओ ! तुम्हें असंस्कृत का उपदेश देता हूँ। भिक्षुओ ! तुम्हें सत्य... पार... सुदुर्दर्श... अजर... ध्रुव... निष्प्रपञ्च... अमृत... शिव... क्षेम... अद्भुत... निरुपद्रव (अनीतिक)... अव्यापद्य (दुःखरहित )... विशुद्धि... द्वीप... त्राण...लयन (लेण= शरण) का उपदेश देता हूँ" (सं० नि० ३/३१२-३२० ) – आदि सूत्रों में उपशम के गुण बतलाये हैं, उनके अनुसार भी अनुस्मरण करना ही चाहिये । जब वह 'मद को नष्ट करने वाला' आदि गुणों के अनुसार अनुस्मरण करता है, तब उस समय चित्त न तो राग से लिप्त होता है, न द्वेष से ... न मोह से लिप्त होता है। उपशम की ओर चित्त की गति सीधी ही होती है" - यों बुद्धानुस्मृति में कहे गये प्रकार से ही, नष्ट हो चुके नीवरणों १. अण्डज - जलाबुज-संसेदज - ओपपातिकयोनियो । २. निरय-तिरच्छान - पेत्तिविसय-मनुस्स-देवगतयो । ३. अ० नि० सत्तकनिपाते दट्ठब्बा । ४. अ० नि० नवकनिपाते दटुब्बा । ५. द्र० - अ० नि०, सत्तकनिपातो । ६. तत्थेव नवकनिपाते ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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