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________________ विसुद्धिमग्गो १०. उपसमानुस्सप्तिकथा ७७. आनापानस्सतिया अनन्तरं उद्दिट्टं पन उपसमानुस्सतिं भावेतुकामेन रहोगतेन पटिसल्लीनेन – “यावता, भिक्खवे, धम्मा सङ्ग्रता वा असङ्ख्ता वा विरागो तेसं धम्मानं अग्गमक्खायति, यदिदं मदनिम्मदनो पिपासविनयो आलयसमुग्घातो वट्टुपच्छेदो तण्हक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं" (अं० नि० २ / ५० ) ति एव सब्बदुक्खूपसमसङ्घातस्स निब्बानस्स गुणा अनुसरितब्बा। १४४ तत्थ यावता ति यत्तका । धम्मा ति सभावा । सङ्खता वा असङ्घता वा ति सङ्गम्म समागम्म पच्चयेहि कता वा अकता वा विरागो तेसं धम्मानं अग्गमक्खायती ति । तेसं सङ्घतासङ्घतधम्मानं विरागो अग्गमक्खायति, सेट्ठो उत्तमो ति वच्चति । तत्थ विरागोति न रागाभावमत्तमेव, अथ खो यदिदं मदनिम्मदनो... पे०... निब्बानं ति यो सो मदनिम्मदनो ति आदीनि नामानि असङ्घतधम्मो लभति, सो विरागो ति पच्चेतब्बो । सो हि यस्मा तं आगम्म सब्बे पि मानमदपुरिसंमदादयो मदा निम्मदा अमदा होन्ति, विनस्सन्ति, तस्मा मदनिम्मदनो ति वुच्चति । यस्मा च तं आगम्म सब्बा पि कामपिपासा विनयं अब्भत्थं याति तस्मा पिपासविनयो ति वुच्चति । यस्मा पन तं आगम्म पञ्चकामगुणालया समुग्घातं गच्छन्ति, तस्मा आलयसमुग्घातो ति वुच्चति । यस्मा च तं आगम्म तेभूमकवट्टं उपच्छिज्जति, इसलिये ऐसे अनेक गुणों वाली आनापानस्मृति में बुद्धिमान् सदा अप्रमत्त होकर लगा रहे ॥ यह आनापानस्मृति की विस्तृत व्याख्या है ॥ १०. उपशमानुस्मृति ७७. आनापानस्मृति के बाद उपदिष्ट उपशमानुस्मृति की भावना करने के अभिलाषी को एकान्त में जाकर “यावता, भिक्खवे, धम्मा सङ्घता वा असद्धुता वा... हक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं" (अ० नि० २/५० ) ( अर्थात् भिक्षुओ ! जितने भी संस्कृत या असंस्कृत धर्म हैं, उन धर्मों में विराग को श्रेष्ठ कहा जाता है, जो कि मद को नष्ट करने वाला, तृष्णा को बुझाने वाला, आलय (राग) का समुच्छेद करने वाला, संसार-चक्र का उपच्छेद करने वाला है, जो कि तृष्णा - क्षय, विराग, निरोध निर्वाण है।) - इस प्रकार सभी दुःखों का उपशम कहे जाने वाले निर्वाण गुणों का बारंबार स्मरण करना चाहिये । इनमें - यावता - जितने भी । धम्मा= स्वभाव । सङ्घता वा असता वा - सङ्गम करके, समागम करके, प्रत्ययों द्वारा कृत या अकृत । विरागो तेसं धम्मानं अग्गमक्खायति - उन संस्कृत और अंस्कृत धर्मों में विराग को अग्र कहा जाता है, श्रेष्ठ, सर्वोत्तम कहा जाता है। विराग राग का अभावमात्र नहीं है, अपितु 'जो मद को नष्ट करने वाला...पूर्ववत्... निर्वाण है' इस प्रकार जो 'मद को नष्ट करने वाला' आदि नामों से असंस्कृत धर्म की श्रेणी में है, उसी को विराग समझना चाहिये। क्योंकि उसकी प्राप्ति से सभी मानमद, पुरुषमद आदि मद नष्ट हो जाते हैं, अतः (उसे) मदनिम्मदनो कहते हैं। क्योंकि उसकी प्राप्ति से सभी कामपिपासाएँ शान्त हो जाती हैं, बुझ जाती है, इसलिये पिपासविनयो कहा जाता है। क्योंकि उसकी प्राप्ति से
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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