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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो १२९ कथं? यथा पुरिसो महतिया लोहसलाकाय कंसथालं आकोटेय्य, एकप्पहारेन महासद्दो उप्पज्जेय्य, तस्स ओळारिकसदारम्मणं चित्तं पवत्तेय्य। निरुद्ध ओळारिके सद्दे अथ पच्छा सुखुमसद्दनिमित्तारम्मणं, तस्मि पि निरुद्ध अपरापरं ततो सुखुमतरं सुखुमतरं सद्दनिमित्तारम्मणं पवत्ततेव, एवं ति वेदितब्बं । वुत्तं पि चेत्तं-"सेय्यथा पि कंसे आकोटिते" (ख० नि० ५/ २१५) ति वित्थारो। यथा हि अञानि कम्मट्ठानानि उपरूपरि विभूतानि होन्ति, न तथा इदं। इदं पन उपरूपरि भावेन्तस्स सुखुमत्तं गच्छति, उपट्टानं पि न उपगच्छति । एवं अनुपट्ठहन्ते पन तस्मि तेन भिक्खुना उट्ठायासना चम्मखण्डं पप्फोटेत्वा न गन्तब्बं। किं कातब्बं? "आचरियं पुच्छिस्सामी" ति वा, "नटुं दानि मे कम्मट्ठानं" ति वा न वुट्ठातब्बं । इरियापथं विकोपेत्वा गच्छतो हि कम्मट्ठानं नवनवमेव होति। तस्मा यथा निसिन्नेनेव देसतो आहरितब्बं। तत्रायं आहरणूपायो–तेन हि भिक्खुना कम्मट्ठानस्स अनुपट्ठानभावं अत्वा, इति पटिसञ्चिक्खितब्बं-इमे अस्सासपस्सासा नाम कत्थ अत्थि, कत्थ नत्थि, कस्स वा अत्थि, कस्स वा नत्थी ति? अथेवं पटिसञ्चिक्खता इमे अन्तोमातुकुच्छियं नत्थि, उदके निमुग्गानं नत्थि, तथा असञ्जीभूतानं, मतानं, चतुत्थज्झानसमापन्नानं, रूपारूपभवसमङ्गीनं, निरोध को आलम्बन बनाने वाला चित्त उत्पन्न होता है। उसके भी निरुद्ध हो जाने पर, एक के बाद एक, पूर्व पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्मतर निमित्तालम्बन भी प्रवर्तित होता ही है। कैसे? जैसे कि कोई पुरुष बहुत बड़ी लौहे की छड़ से काँसे की थाली पर चोट करे और एक बार चोट करने पर महाशब्द (तीव्र ध्वनि) उत्पन्न हो; तब स्थूल शब्द को आलम्बन बनाने वाला उसका चित्त उत्पन्न हो। स्थूल शब्द के निरुद्ध हो जाने पर, बाद में सूक्ष्म शब्द को आलम्बन बनाने वाला (चित्त उत्पन्न हो), उसके भी निरुद्ध हो जाने पर एक के बाद एक, पूर्व पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्मतर निमित्तालम्बन प्रवर्तित हों; ऐसे ही इसे जानना चाहिये। एवं यह कहा भी है-"जैसे काँसे की थाली पर चोट करने पर" (खु० नि० ५/२१५)। (इस कथन की) यह व्याख्या है। जैसे दूसरे कर्मस्थान ऊपर ऊपर के स्तरों में क्रमशः अधिक स्पष्ट होते जाते हैं, वैसे यह (कर्मस्थान) नहीं है। यह तो भावना करने वाले के लिये उत्तरोत्तर और अधिक सूक्ष्म होता जाता है, (यहाँ तक कि) जान. भी नहीं पड़ता। जब वह इस प्रकार अनुपस्थित प्रतीत हो, तो भिक्षु को यह नहीं चाहिये कि आसन से उठकर, धर्मासन को झाड़कर चल दे। तब क्या करना चाहिये? उसे यह सोचकर उठ नहीं जाना चाहिये कि "आचार्य से पूछूगा" या "अब मेरा कर्मस्थान नष्ट हो गया।" क्योंकि ईर्यापथ में विघ्न डालकर चले जाने वाले को नये सिरे से कर्मस्थान का आरम्भ करना पड़ता है। इसीलिये उसी प्रकार बैठे बैठे, स्थान के अनुसार (अनुभव में) लाना चाहिये। लाने का उपाय यों है-उस भिक्षु को 'कर्मस्थान अनुपस्थित हो गया' यों जानकर इस प्रकार विचार करना चाहिये-"ये आश्वास-प्रश्वास कहाँ होते हैं, कहाँ नहीं होते, किसे होते हैं, किसे नहीं होते?" तब यों विचार करते हुए यह जानकर कि ये माता के गर्भ में नहीं होते, पानी में डूबे हुओं को नहीं होते एवं संज्ञारहित (बेहोश) प्राणियों को, मृतकों को, चतुर्थ ध्यान प्राप्त
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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