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विसुद्धिमग्गो अनुपुब्बं परिचिता यथा बुद्धेन देसिता। सो इम लोकं पभासेति अब्भा मुत्तो व चन्दिमा" ति॥
_ (खु० नि० ५/२००) अयं ककचूपमा। इध पनस्स आगतागतवसेन मनसिकारमत्तमेव पयोजनं ति वेदितब्बं ।
(४) इदं कम्मट्ठानं मनसिकरोतो कस्सचि च चिरेनेव निमित्तं च उप्पज्जति, अवसेसझानङ्गपटिमण्डिता अप्पनासङ्घाता ठपना च सम्पज्जति। . ___कस्सचि पन गणनावसेनेव मनसिकारकालतो पभुति, अनुकंमतो ओळारिकअस्सासपस्सासनिरोधवसेन कायदरथे वूपसन्ते कायो पि चित्तं पि लहुकं होति, सरीरं आकासे लङ्घनाकारप्पत्तं विय होति। यथा सारद्धकायस्स मञ्चे वा पीठे वा निसीदतो मञ्चपीठं ओनमति, विकूजति, पच्चत्थरणं वलिं गण्हाति। असारद्धकायस्स पन निसीदतो नेव मञ्चपीठं ओनमति, न विकूजति, न पच्चत्थरणं वलिं गण्हाति, तूलपिचुपूरितं विय मञ्चपीठं होति। कस्मा? यस्मा असारद्धो कायो लहुको होति। एवमेव गणनावसेन मनसिकारकालतो पभुति अनुक्कमतो ओळारिकअस्सासपस्सासनिरोधवसेन कायदरथे वूपसन्ते कायो पि चित्तं पि लहुकं होति, सरीरं आकासे लङ्घनाकारप्पत्तं विय होति।
तस्स ओळारिके अस्सासपस्सासे निरुद्ध सुखुमस्सासपस्सासनिमित्तारम्मणं चित्तं पवत्तति। तस्मि पि निरुद्ध अपरापरं ततो सुखुमतरं निमित्तारम्मणं पवत्तति येव।
अभ्यास किया है, वह इस लोक को मेघ-मुक्त चन्द्रमा के समान प्रकाशित करता है॥ (खु० नि० ५/२००) (ग)
यह आरे की उपमा है। यहाँ अभिप्राय यह समझना चाहिये कि वह आ चुके या जा चुके (आश्वास-प्रश्वासों) पर ध्यान नहीं देता।
४. स्थापना-इस कर्मस्थान को मन में लाते हुए, किसी को शीघ्र ही (प्रतिभाग) निमित्त उत्पन्न हो जाता है, एवं अवशेष ध्यानाङ्गों से प्रतिमण्डित (समन्वित) 'अर्पणा' कही जाने वाली स्थापना (उपना) उत्पन्न होती है। - किसी किसी को गणना द्वारा मन में लाते समय से ही, क्रमशः स्थूल आश्वास-प्रश्वास का निरोध हो जाने से कायिक पीड़ा शान्त हो जाती है, अतः काया भी, चित्त भी लघु (हल्का) हो जाता है, ऐसा लगता है मानो शरीर आकाश में छलांग लगाने योग्य हो। जैसे कि पीड़ित शरीर वाला जब चारपाई या चौकी पर बैठता है, तब चारपाई या चौकी लचक जाती है, आवाज करती हैं, चादर में सिकुड़न पड़ जाती है। किन्तु पीडारहित शरीर वाला जब चारपाई या चौकी पर बैठता है, तब चारपाई या चौकी न लचकती है, न आवाज करती है, न चादर में सिकुड़न पड़ती है, मानो चारपाई-चौकी सेमर की रूई से भरी हो। क्यों? क्योंकि पीडारहित काया हल्की होती है। वैसे ही गणना द्वारा मनस्कार के समय से लेकर क्रमश: स्थूल आश्वास-प्रश्वास का निरोध होने से काया की पीड़ा शान्त हो जाती है, अतः काया भी, चित्त भी हल्का होता है। ऐसा लगता है मानो शरीर आकाश में छलांग लगाने योग्य हो।
जब उसके स्थूल आश्वास-प्रश्वास निरुद्ध हो जाते हैं, तब सूक्ष्म आश्वास-प्रश्वास निमित्त