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विसुद्धिमग्गो
समापन्नानं ति ञत्वा एवं अत्तना व अत्ता पटिचोदेतब्बो - " ननु त्वं, पण्डित, नेव मातुकुच्छिगतो, न उदके निमुग्गो, न असञ्जीभूतो न मतो, न चतुत्थज्झानसमापन्नो, न रूपारूपभवसमङ्गी, न निरोधसमापन्नो | अत्थि येव ते अस्सासपस्सासा, मन्दपञताय पन परिग्गहेतुं न सक्कोसी" ति । अथानेन पकतिफुट्ठवसेन चित्तं ठंपेत्वा मनसिकारो पवत्तेतब्बो । इमे हि दीघनासिकस्स नासापुटं घट्टेन्ता पवत्तन्ति । रस्सनासिकस्स उत्तरोट्टं । तस्मानेन 'इमं नाम ठानं घट्टेन्ती' ति निमित्तं ठपेतब्बं । इममेव हि अत्थवसं पटिच्च वुत्तं भगवता"नाहं, भिक्खवे, मुट्ठस्सतिस्स असम्पजानस्स आनापानस्सतिभावनं वदामी" (म० नि० ३/ ११७० ) ति ।
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किञ्चापि हि यं किञ्चि कम्मट्ठानं सतस्स सम्पजानस्सेव सम्पज्जति । इतो अञ्जं पन मनसिकरोन्तस्स पाकटं होति । इदं पन आनापानस्सतिकम्मट्ठानं गरुकं गरुकभावेन बुद्धपच्चेकबुद्धबुद्धपुत्तानं महापुरिसानं येव मनसिकारभूमिभूतं, न चेव इत्तरं, न इत्तरसत्तसमासेवितं । यथा यथा मनसिकरीयति, तथा तथा सन्तं चेव होति सुखमं च । तस्मा एत्थ बलवती सति च पञ्ञा च इच्छितब्बा ।
यथा हि मट्ठसाटकस्स तुन्नकरणकाले सूचि पि सुखुमा इच्छितब्बा । सूचिपासवेधनं पि ततो सुखमतरं, एवमेव मट्ठसाटकसदिसस्स इमस्स कम्मट्ठानस्स भावनाकाले सूचिपटिभागा
करने वालों को, रूप और अरूप भव में उत्पन्न हुओं को, निरोधसमापत्ति प्राप्त करने वालों को भी नहीं होते; उसे स्वयं ही स्वयं को यों समझाना चाहिये - " पण्डित ! तुम न तो माता के गर्भ में हो, न पानी में डूबे हो, न बेहोश हो, न मृत हो, न चतुर्थ ध्यान प्राप्त हो, न रूप या अरूप भव में उत्पन्न हो, न निरोधसमापन्न हो । ( इसलिये) तुम्हारे आश्वास-प्रश्वास वस्तुत: हैं, किन्तु प्रज्ञा के मन्द होने से तुम उनका ग्रहण नहीं कर पा रहे हो ।" तत्पश्चात् इस (भिक्षु) को सामान्यतः स्पृष्ट (स्थान) में चित्त को स्थिर कर मनस्कार करना चाहिये ।
ये आश्वास-प्रश्वास लम्बी नाक वाले के नासिकापुट का घर्षण करते हुए उत्पन्न होते हैं, छोटी नाक वाले के ऊपरी ओंठ का । इसलिये उसे "इस स्थान का घर्षण करते हैं'- यों निमित्त को स्थिर करना चाहिये। इसी कारण से भगवान् ने कहा है- " भिक्षुओ ! जो विस्मरणशील है, जागरूक नहीं है, उसके लिये मैं आनापानस्मृति की भावना नहीं कहता।" (म० नि० ३/११७०) वैसे तो किसी भी कर्मस्थान में उसी को सफलता मिलती है जो स्मृतिमान और जागरूक होता है, किन्तु इस (आनापान स्मृति) के अतिरिक्त अन्य (कर्मस्थान) मनस्कार करने वाले को स्पष्ट हुआ करता है। यह आनापानस्मृति कर्मस्थान तो कठिन है, भावना करने में कठिन है, एवं बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, बुद्धपुत्रों, महापुरुषों के ही मनस्कार का क्षेत्र है, (यह) न तो साधारण है एवं न ही साधारण सत्त्वों द्वारा सेवित (अभ्यस्त ) है; क्यों कि जैसे जैसे -मनस्कार करते हैं, वैसे वैसे (यह कर्मस्थान) शान्त और सूक्ष्म होता जाता है। इसलिये इसमें बलवती स्मृति एवं प्रज्ञा की अपेक्षा होती है।
जैसे कि महीन कपड़े की सिलाई करते समय सूई भी पतली होनी चाहिये, सूई का तागा उससे भी पतला (होना चाहिये), वैसे ही महीन कपड़े के समान इस कर्मस्थान की भावना के