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अनुरसतिकम्मट्ठाननिद्देसो
सकलस्स अस्सासकायस्स आदिमज्झपरियोसानं विदितं करोन्तो पाकटं करोन्तो अस्ससिस्सामी ति सिक्खति । सकलस्स पस्सासकायस्स आदिमज्झपरियोसानं विदितं करोन्तो पाकटं करोन्तो पस्ससिस्सामी ति सिक्खति । एवं विदितं करोन्तो पाकटं करोन्तो ञाणसम्पयुत्तचित्तेन अस्ससति चेव पस्ससति च। तस्मा "अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती" ति वुच्चति ।
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एकस्स हि भिक्खुनो चुण्णविचुण्णविसटे अस्सासकाये पस्सासकाये वा आदि पाकटो होति, न मज्झपरियोसानं । सो आदिमेव परिग्गहेतुं सक्कोति, मज्झपरियोसाने किलमति । एकस्स मज्झं पाकटं होति, न आदिपरियोसानं । एकस्स परियोसानं पाकटं होति, न आदिमज्झ । सो परियोसानं येव परिग्गहेतुं सक्कोति, आदिमज्झे किलमति । एकस्स सब्बं पि पाकटं होति, सो सब्बं पि परिग्गहेतुं सक्कोति, न कत्थचि किलमति । तादिसेन भवितब्बं ति दस्सेन्तो आह"सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी ति... पे०... पस्ससिस्सामी ति सिक्खती" ति ।
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तत्थ सिक्खतीति । एवं घटति वायमति । यो वा तथाभूतस्स संवरो, अयमेत्थ अधिसीलसिक्खा; यो तथाभूतस्स समाधि, अयं अधिचित्तसिक्खा; या तथाभूतस्स पञ्जा, अयं अधिपञसिक्खा ति इमा तिस्सो सिक्खायो, तस्मि आरम्मणे, ताय सतिया, तेन मनसिकारेन सिक्खति, आसेवति, भावेति, बहुलीकरोती ति एवमेत्थ अत्थो दट्टब्बो ।
आश्वासकाय के आदि, मध्य और अन्त को जानते हुए, प्रकट (अनुभव) करते हुए साँस लूँगाऐसा अभ्यास करता है। समस्त प्रश्वासकाय के आदि, मध्य और अन्त को जानते हुए, प्रकट करते हुए साँस छोडूंगा—ऐसा अभ्यास करता है। यों जानते हुए, प्रकट करते हुए, ज्ञानसम्प्रयुक्त चित्त से साँस लेता और छोड़ता है । अतएव कहा गया है कि "साँस लेता हूँ, साँस छोड़ता हूँ-यों अभ्यास करता है।"
किसी किसी भिक्षु को अङ्गों (अनेक कलापों) में विभक्त आश्वासकाय या प्रश्वासका आदि का तो स्पष्ट अनुभव होता है, किन्तु मध्य और अन्त का नहीं। वह आदि को ही ग्रहण कर सकता है, मध्य और अन्त में उसे कठिनाई का अनुभव होता है। किसी किसी को मध्य काही स्पष्ट अनुभव होता है, आदि और अन्त का नहीं। किसी किसी को अन्त का ही स्पष्ट अनुभव होता है, आदि और मध्य का नहीं। वह अन्त को ही ग्रहण कर सकता है, आदि और मध्य में उसे कठिनाई होती है। किसी किसी को सभी का स्पष्ट अनुभव होता है। वह सबको ग्रहण कर सकता है, किसी में भी कठिनाई नहीं होती। ऐसा ही होना चाहिये - इसे दरसाते हुए कहा गया है- "सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी ति... पे०... पस्ससिस्सामी ति सिक्खति । "
सिक्खति-यों उद्योग करता है, प्रयत्न करता है । अथवा ('सिक्खति' को 'सीखता है' अर्थ में ग्रहण करने पर), जी वैसे (योगी) का संवर है, वही यहाँ अधिशीलशिक्षा है; जो समाधि है, वही अधिचित्तशिक्षा है; जो प्रज्ञा है, वही अधिप्रज्ञशिक्षा है। इन तीन शिक्षाओं को उस आलम्बन में, उस स्मृति से, उस मनसिकार से अभ्यास करता है, दुहराता है, भावना करता है, बार बार अभ्यास करता है - यहाँ यह अर्थ समझना चाहिये ।
१. चुण्णविचुण्णविसटे ति । अनेककलापताय चुण्णविचुण्णभावेन वितते ।