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________________ ११६ विसुद्धिमग्गो तत्थ यस्मा पुरिमनये केवलं अस्ससितब्बं पस्ससितब्बमेव, न च अजं किञ्चि कातब्बं । इतो पट्ठाय पन आणुप्पादनादीसु योगो करणीयो। तस्मा तत्थ अस्ससामी ति पजानाति, . पस्ससामी ति पजानातिच्चेव वत्तमानकालवसेन पाळिं वत्वा, इतो पट्ठाय कत्तब्बस्स आणुप्पादनादिनो आकारस्स दस्सनत्थं सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी ति आदिना नयेन अनागतवचनवसेन पाळि आरोपिता ति वेदितब्बा। ६२. पस्सम्भयं कायसङ्खारं अस्ससिस्सामी ति ...पे०.... पस्ससिस्सामी ति सिक्खती ति। ओळारिकं कायसङ्घारं२ पस्सम्भेन्तो पटिप्पस्सम्भेन्तो निरोधेन्तो वूपसमन्तो अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। तत्र एवं ओळारिकसुखुमता च पस्सद्धि च वेदितब्बा। इमस्स हि भिक्खुनो पुब्बे अपरिग्गहितकाले कायो च चित्तं च सदरथा होन्ति ओळारिका। कायचित्तानं ओळारिकत्ते अवूपसन्ते अस्सासपस्सासा पि ओळारिका होन्ति, बलवतरा हुत्वा पवत्तन्ति, नासिका नप्पहोति, मुखेन अस्ससन्तो पि पस्ससन्तो पि तिट्ठति। यदा पनस्स कायो पि चित्तं पि परिग्गहिता होन्ति, तदा ते सन्ता होन्ति वूपसन्ता। तेसु वूपसन्तेसु अस्सासपस्सासा सुखुमा हुत्वा पवत्तन्ति, "अत्थि नु खो नत्थी" ति विचेतब्बताकारप्पत्ता होन्ति। क्योंकि पूर्व (भावना) नय में तो केवल साँस लेना और छोड़ना होता है, और कुछ नहीं करना रहता; किन्तु इसके बाद ज्ञान के उत्पादन आदि में योग करना होता है। इसलिये उस प्रसङ्ग में "श्वास लेता हूँ–यह जानता है" और 'श्वास छोड़ता हूँ यह जानता है'-यों वर्तमान काल में पालि को कहकर, इसके बाद से किये जाने योग्य ज्ञान के उत्पादन के आकार को दरसाने के लिये 'सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामि'-यों भविष्य काल में पालि का प्रयोग किया गया है-यह जानना चाहिये। ६२. पस्सम्भयं कायसङ्घारं अस्ससिस्सामी ति..पे०..पस्ससिस्सामीति सिक्खतिस्थूल (औदारिक) कायसंस्कार को शान्त (प्रश्रब्ध) करते हुए, पूरी तरह से शान्त करते हुए, निरुद्ध करते हुए, उपशमित करते हुए सांस लूँगा सांस छोड़ेंगा-यों अभ्यास करता है। इस प्रसङ्ग में स्थूलता सूक्ष्मता एवं प्रश्रब्धि को समझ लेना चाहिये। क्योंकि पहले जब तक कि भिक्षु (कर्मस्थान को) परिगृहीत नहीं किये रहता, काय एवं चित्त अशान्त, अत एव स्थूल होते हैं। काय एवं चित्त के अशान्त, स्थूल होने से आश्वास-प्रश्वास भी स्थूल होते हैं, अधिक बलशाली होकर प्रवृत्त होते हैं। (ऐसा होने से उसके लिये उसकी) नासिका पर्याप्त नहीं रह जाती, तब वह मुख से (भी) सांस लेता और छोड़ता रहता है। किन्तु जब इसकी काया भी, चित्त भी परिगृहीत होते हैं, तब वे शान्त, बहुत अच्छी तरह शान्त होते हैं। उनके अच्छी तरह से शान्त होने पर आश्वास-प्रश्वास भी इतने सूक्ष्म होकर प्रवृत्त होते हैं कि यह विवेचन करना पड़ जाता है कि वे हैं भी या नहीं! १. पुरिमनये ति। पुरिमस्मि भावनानये, पठमवत्थुद्वये ति अधिप्पायो। २. कायसङ्खारं ति। अस्सासपस्सासं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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