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________________ ११४ विसुद्धिमग्गो चेव सति च। ताय सतिया तेन आणेन तं कायं अनुपस्सति । तेन वुच्चति -काये कायानुपस्सना सतिपट्ठानभावना" (खु० नि० ५ / २०५ ) ति । · एस नयो रस्सपदे पि । अयं पन विसेसो - यथा एत्थ " दीघं अस्सासं अद्धानसङ्घाते" ति वुत्तं, एवमिध "रस्सं अस्सासं इत्तरसङ्घाते अस्ससती" ति आगतं । तस्मा रस्सवसेन याव. " तेन वुच्चति काये कायानुपस्सना सतिपट्ठानभावना" ति 'ताव योजेतब्बं । एवमयं अद्धानवसेन' इत्तरवसेन रे च इमेहि आकारेहि अस्सासपस्सासे पजानन्तो दीघं वा अस्ससन्तो दीघं अस्ससामी ति पजानाति ... पे०... रस्सं वा पस्ससन्तो रस्सं पस्ससामी ति पजानातीति वेदितब्बो । एवं पजानतो चस्स - दीघो रस्सो च अस्सासो पस्सासो पि च तादिसो । चत्तारो वण्णा' वत्तन्ति नासिकग्गे व भिक्खुनो ति ॥ (वि० दु० २/१६) ६१. सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामि...पे...पस्ससिस्सामीति सिक्खतीति । उपस्थान भी है, स्मृति भी है। उस स्मृति, उस ज्ञान से उस काया की अनुपश्यना करता है। इसीलिये कहा गया है - " काया में कायानुपश्यना - स्मृतिप्रस्थानभावना" (खु०नि० ५/२०५) । यही विधि ह्रस्व शब्द में भी है। अन्तर यह है - जैसे यहाँ 'दीघं अस्सासं अद्धानसङ्घाते' कहा गया है, वैसे ही यहाँ - 'रस्सं अस्सासं इत्तरसङ्घाते अस्ससति' – ऐसा आया है। इसलिये (M के स्थान पर) 'ह्रस्व' रखते हुए 'तेन वुच्चति काये कायानुपस्सना सतिपट्ठानभावना' तक योजना कर लेनी चाहिये। यों यह (योगी) दीर्घकाल के अनुसार एवं परिमित काल के अनुसार इन (नौ) आकारों में आश्वास-प्रश्वास को जानते हुए यदि लम्बा सांस लेता है तो 'लम्बा सांस ले रहा हूँ' ऐसा जानता है ... पूर्ववत् ... यदि छोटा सांस छोड़ रहा होता है, तो 'छोटा सांस छोड़ रहा हूँ' ऐसा जानता हैयों समझना चाहिये। यों जानते हुए इस " भिक्षु की नासिका के अग्रभाग पर दीर्घ और ह्रस्व आश्वास एवं वैसे प्रश्वास भी - (ये) चारों आकार (वर्ण) प्रवर्तित होते हैं |" ६१. सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामि... पे०... पस्ससिस्सामीति सिक्खति - समस्त १. अयं ति योगावचरो । ३. इत्तरवसेना ति । परित्तकालवसेन । ५. चत्तारो वण्णा ति । चत्तारो आकारा । ते च दीघादयो व । २. अद्धानवसेना ति । दीघकालवसेन । ४. इमेहि आकारेही ति । इमेहि नवहि आकारेहि । ६. नासिकग्गे व भिक्खुनो ति । गाथाबन्धसुखत्थं रस्सं कत्वा वुत्तं - "नासिकग्गे व" इति । वा- सद्दो अनियमत्थो, तेन उत्तरोट्टं सङ्गहाति । ७. गाथासंरचना की सुकरता के लिये "नासिकग्गे वा" इस पाठ को ह्रस्व करके 'नासिकग्गेव' कहा गया है। वा (या) यहाँ अ-नियमार्थ है । अतः यहाँ ऊपर का ओष्ठ भी संगृहीत होता है। ८. आकार को ही यहाँ 'वर्ण' कहा गया है। दीर्घ आश्वास, ह्रस्व आश्वास, दीर्घ प्रश्वास, ह्रस्व प्रश्वासये चार आकार हैं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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