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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
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च अप्पितप्पितक्खणे कायिकचेतसिकसुखपटिलाभाय संवत्तनतो सुखो च विहारो ति
वेदितब्बो ।
उप्पन्नुपन्ने ति | अविक्खम्भिते अविक्खम्भिते । पापके ति लाम । अकुसले धम्मेति । अकोसल्लसम्भूते धम्मे । ठानसो अन्तरधापेती ति । खणेनेव अन्तरधापेति, विक्खम्भेति । वूपसमेती ति। सुठु उपसमेति, निब्बेधभागियत्ता वा अनुपुब्बेन अरियमग्गबुद्धिप्पत्तो समु– च्छिन्दति। पटिप्पस्सम्भेती ति वुत्तं होति ।
अयं पनेत्थ सङ्क्षेपत्थो – भिक्खवे, केन पकारेन केनाकारेन केन विधिना भावितो अनापानस्सतिसमाधि, केन पकारेन बहुलीको सन्तो चेव... पे०... वूपसमेतीति ।
५८. इदानि तमत्थंरॆ वित्थारेन्तो "इध भिक्खवे" ति आदिमाह । तत्थ इध भिक्खवे भिक्खू ति । भिक्खवे इमस्मि सासने भिक्खु । अयं हि एत्थ इधसद्दो सब्बप्पकारआनापान - स्सतिसमाधिनिब्बत्तकस्स पुग्गलस्स सन्निस्सयभूतसासनपरिदीपनो, अञ्ञसासनस्स तथाभावपटिसेधनो च । वुत्तं तं - "इधेव, भिक्खवे, समणो...पे....सुञा परप्पवादा समणेहि अ" (म० नि० १ / ९९ ) ति । तेन वुत्तं - " इमस्मि सासने भिक्खू" ति ।
अरञ्जगतो वा... पे०... सुञगारगतो वा ति । इदमस्स आनापानस्सतिसमाधिभावनारूपसेनासनपरिग्गहपरिदीपनं । इमस्स हि भिक्खुनो दीघरत्तं रूपादीसु आरम्मणेसु अनुविसटं
के क्षण से कायिक एवं चैतसिक सुख की प्राप्ति कराती है, अतः सुख और विहार (सुख - विहार) है।
उप्पन्नुप्पन्ने – जब जब उनका दमन नहीं किया गया। पापके - हीन । अकुसले धम्मेअकुशलता (अकौशल) से उत्पन्न धर्मों को । ठानसो अन्तर्धापेति – तत्क्षण अन्तर्हित कर देती है, दबा देती है। वूपसमेति—अच्छी तरह शान्त कर देती है। या निर्वेधभागीय होने से क्रमशः आर्यमार्ग द्वारा वृद्धि को प्राप्त होकर, समुच्छिन्न कर देती है, पूरी तरह शान्त कर देती है ।
यहाँ इस का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - 'भिक्षुओ ! किस प्रकार, किस ढंग से, किस विधि से भावना की गयी आनापानस्मृतिसमाधि, किस प्रकार से बढ़ायी गयी शान्त और... पूर्व... अशान्त कर देती है ।
५८. अब उसकी व्याख्या करते हुए "इध भिक्खवे" आदि कहा गया है। उनमें, इध, भिक्खवे, भिक्खु - भिक्षुओ ! इस शासन में भिक्षु । प्रस्तुत प्रसङ्ग में यह जो 'यहाँ' (इध) शब्द है, वह सब प्रकार से आनापानस्मृति समाधि को उत्पन्न करने वाले पुद्गल के निश्रय ( = आश्रय, शरण) भूत (बुद्ध-) शासन को एवं अन्य शासन में वैसा होने के निषेध को भी सूचित करता है। क्योंकि कहा गया है — "भिक्षुओ! यहीं श्रमण... पूर्ववत्... अन्यमतवाद श्रमणों से शून्य हैं" (म० नि० १/९९) । इसलिये कहा गया है - " इस शासन में भिक्षु" (म० नि० १/९९) । अरञ्जगतो वा ...पे०... सुञ्ञागारगतो वा - यह ( वाक्यांश) इस (भिक्षु) द्वारा आनापानस्मृतिसमाधि की भावना के अनुरूप शयनासन के ग्रहण को सूचित करता है। इस (अल्पशिक्षित) भिक्षु का चित्त,
१. तमत्थं ति। ‘“तं कथं भावितो" ति आदिना पुच्छावसेन सङ्क्षेपतो वुत्तमत्थं ।