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विसुद्धिमग्गो
आनापानस्सतिसमाधी ति नानप्पकारतो वित्थारेतुकम्यताय पुट्ठधम्मनिदस्सनं । कथं बहुलीको ......... वूपसमेत ति एत्था पि एसेव नयो ।
तत्थ भावितो ति उप्पादितो, वड्ढितो वा । आनापानस्सतिसमाधी ति । आनापान - परिग्गाहिंकाय सतिया सद्धिं सम्पयुत्तो समाधि, आनापानस्सतियं वा समाधि आनापानस्सतिसमाधि । बहुलीको ति । पुनप्पुनं कतो ।
सन्तो चेव पणीतो चा ति । सन्तो चेव पणीतो चेव । उभयत्थ एवसद्देन नियमो वेदितब्बो। किं वुत्तं होति ? अयं हि यथा असुभकम्मट्ठानं केवलं पटिवेधवसेन सन्तं च पणीतं च, ओळारिकारम्मणत्ता पन पटिक्कूलारम्मणत्ता च आरम्मणवसेन नेव सन्तं न पणीतं न एवं केनचि परियायेन असन्तो वा अप्पणीतो वा, अथ खो आरम्मणसन्तताय पि सन्तो वूपसन्तो निब्बुतो, पटिवेधसङ्घातअङ्गसन्तताय पि। आरम्मणपणीतताय पि पणीतो अतित्तिकरो, अङ्गपणीतताय पी ति । तेन वुत्तं - " सन्तो चेव पणीतो चा" ति ।
असेचनको च सुखो च विहारो ति । एत्थ पन नास्स सेचनं ति असेचनको, अनासित्तको अब्बोकिण्णो पाटियेक्को' आवेणिको २ । नत्थि एत्थ परिकम्मेन वा उपचारेन वा सन्तता, आदिसमन्नाहारतो पभुति अत्तनो सभावेनेव सन्तो च पणीतो चा ति अत्थो । केचि पन असेचनको ति अनासित्तको ओजवन्तो सभावेनेव मधुरो ति वदन्ति । एवमयं असेचनको
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किया गया है। तथा भावितो च, भिक्खवे, आनापानस्सतिसमाधि - यह नाना प्रकार से विस्तार करने की इच्छा से पूछे गये धर्मों का निदर्शन है । कथं बहुलीकतो...पे....वूपसमितो यहाँ भी यही विधि है । भावितो - उत्पन्न की गयी या बढ़ाई गयी । आनापानस्सतिसमाधि - आनापान को ग्रहण करने वाली स्मृति के साथ सम्प्रयुक्त समाधि, या आनापान की स्मृतिविषयक समाधि । बहुलीको - बार बार की गयी। सन्तो चेव पणीतो च- शान्त भी, प्रणीत भी। दोनों (शब्दों) से 'एव' (ही) का सम्बन्ध जानना चाहिये ।
तात्पर्य क्या है ? जैसे कि अशुभ कर्मस्थान केवल प्रतिषेध के अनुसार शान्त और प्रणीत होता है, किन्तु आलम्बन के स्थूल एवं प्रतिकूल होने के कारण आलम्बन के अनुसार न तो शान्त और न ही प्रणीत होता है; उसके विपरीत यह (आनापानस्मृति समाधि) किसी भी रूप में न तो अशान्त है, न अप्रणीत है, अपितु आलम्बन के शान्त होने से भी शान्त, उपशान्त, निर्वृत है। इसीलिये कहा गया है- " सन्तो चेव पणीतो च ।"
असेचनको च सुखो न विहारो - क्योंकि इसका सेचन नहीं होता अतः असेचनक, असिक्त, अमिश्रित, प्रत्येक, असाधारण । यह परिकर्म (जैसे कसिण में) या उपचार (जैसे अशुभ में) के रूप में शान्त नहीं है, अर्थात् प्रथम मनस्कार से ही स्वभावतः शान्त और प्रणीत है। कोई कोई (टीका के अनुसार उत्तरविहारवासी, सिंहलनय के अनुसार अभयगिरिवासी) विद्वान् कहते हैं कि असेचनक का अर्थ असक्त, ओजस्वी, स्वभाव से ही मधुर है। और यह असेचनक अर्पणा
१. पाटियेक्को ति । विसुं येवेको ।
२. आवेणिको ति । असाधारणो ।