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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो १०५ पस्ससति दीघं वा अस्ससन्तो 'दीघं अस्ससामी' ति पजानाति, दीर्घ वा पस्ससन्तो..पे०...रस्सं वा अस्ससन्तो... पे०...रस्सं वा पस्ससन्तो 'रस्सं पस्ससामी' ति पजानाति। सब्बकायपटिसंवेदी अस्ससिस्सामी ति सिक्खति, सब्बकायपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। पस्सम्भयं कायसङ्खारे अस्ससिस्सामी ति सिक्खति, पस्सम्भयं कायसवारं पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। पीतिपटि-संवेदी...सुखपटिसंवेदी..चित्तसङ्खारपटिसंवेदी...पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं चित्तपटिसंवेदी... अभिप्पमोदयं चित्तं...समादहं चित्तं..विमोचयं चित्तं....अनिच्चानुपस्सी...विरागानुपस्सी... निरोधानुपस्सी...पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्ससिस्सामी ति सिक्खति, पटिनिस्सग्गानुपस्सी पस्ससिस्सामी ति सिक्खती" (सं० नि० ४/२०२३) ति एवं सोळसवत्थुकं' आनापानस्सति-कम्मट्ठानं निद्दिटुं। तस्स भावनानिहेसो अनुप्पत्तो। सो पन यस्मा पाळिवण्णनानुसारेनेव वुच्चमानो सब्बाकारपरिपूरो होति, तस्मा अयमेत्थ पाळिवण्णनापुब्बङ्गमो निद्देसो ५७. कथं भावितो च भिक्खवे आनापानस्सतिसमाधी ति। एत्थ ताव कथं ति आनापानस्सतिसमाधिभावनं नानप्पकारतो वित्थारेतुकम्यता पुच्छा। भावितो च, भिक्खवे, पर (यह) शान्त, प्रणीत, अमिश्रित और सुखविहार, उत्पन्न होने वाले बुरे एवं हानिप्रद धर्मों को अन्तर्हित कर देती है, शान्त कर देती है ? भिक्षुओ! यहाँ भिक्षु अरण्य में या वृक्ष के नीचे जाकर या शून्य (निर्जन) घर में जाकर, पद्मासन लगाकर, शरीर को सीधा रखते हुए, सामने स्मृति को उपस्थित करते हुए बैठता है। वह स्मृति के साथ ही श्वास लेता है, स्मृति के साथ ही श्वास छोड़ता है, लम्बी श्वास लेते हुए लम्बा श्वास लेता हूँ' यह जानता है, लम्बा श्वास छोड़ते हुए ...पूर्ववत्... छोटा श्वास लेते हुए ...पूर्ववत्... छोटा श्वास छोड़ते हुए 'छोटा श्वास छोड़ता हूँ', यह जानता है, 'समस्त काय का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करते हुए श्वास लूँगा'-ऐसा अभ्यास करता है। समस्त काय का प्रतिसंवेदन करते हुए श्वास छोड़ेंगा'-ऐसा अभ्यास करता है। कायसंस्कार को शान्त करते हुए श्वास लूँगा'-ऐसा अभ्यास करता है। प्रीति का प्रतिसंवेदन करते हुए...सुख का प्रतिसंवेदन करते हुए...चित्तसंस्कार का प्रतिसंवेदन करते हुए...चित्तसंस्कार को शान्त करते हुए...चित्त को प्रमुदित करते हुए...चित्त को एकाग्र करते हुए...चित्त का विमोचन करते हुए अनित्य की अनुपश्यना करते हुए...विराग की अनुपश्यना करते हुए...निरोध की अनुपश्यना करते हुए... प्रतिनिःसर्ग की अनुपश्यना करते हुए श्वास लूँगा'-ऐसा अभ्यास करता है, 'प्रतिनिःसर्ग की अनुपश्यना करते हुए श्वास छोड़ेंगा' ऐसा अभ्यास करता है।" (सं०नि० ४/२०२३)। यह (निर्देश) क्योंकि पालिवर्णन के अनुसार कहे जाने पर ही सब प्रकार से पूर्ण होगा, अत: पालिवर्णन को पहले रखते हुए, निर्देश इस प्रकार है प्रथम चतुष्क ५७. कथं भावितो च, भिक्खवे आनापानस्सतिसमाधि-(पिं० म०, पृ० १०४) यहाँ, कथं-यह प्रश्न आनापान स्मृति समाधि भावना का नाना प्रकार से विस्तार करने की इच्छा से १. सोळसवत्थुकं ति। चतूसु अनुपस्सनासु चतुत्रं चतुक्कानं वसेन सोळसट्टानं । २. निद्देसो ति। कम्मट्ठानस्स निस्सेसतो वित्थारो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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