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________________ १०८ विसुद्धिमग्गो चित्तं अनापानस्सतिसम्ाधिंआरम्मणं अभिरुहितुं न इच्छति, कूटगोणयुत्तरथो विय उप्पथमेव धावति । तस्मा सेय्यथापि नाम गोपो कूटधेनुया सब्बं खीरं पिवित्वा वड्ढितं कूटवच्छं दमेतुकामो धेनुतो अपनेत्वा एकमन्ते महन्तं धम्भं निखणित्वा तत्थ योत्तेन बन्धेय्य, अथस्स सो वच्छो इतो च विप्फन्दित्वा पलायितुं असक्कोन्तो तमेव थम्भं उपनिसीदेय्य वा उपनिपज्जेय्य वा; एवमेव इमिना पि भिक्खुना दीघरत्तं रूपारम्मणादिरसपानवडितं दुटुचित्तं दमेतुकामेन रूपादिआरम्मणतो अपनेत्वा अर... पे०... सुञ्ञागारं वा पविसित्वा तत्थ अस्सासपस्सासथम्भे सतियोत्तेन बन्धितब्बं । एवमस्स तं चित्तं इतो चितोच विप्फन्दित्वा पि पुब्बे आचिण्णारम्मणं अलभमानं सतियोत्तं छिन्दित्वा पलायितुं असक्कोन्तं, तमेवारम्मणं उपचारप्पनावसेन उपनिसीदति चेव उपनिपज्जति च। तेनाहु पोराणा "यथा थम्मे निबन्धेय्य, वच्छं दम्मं नरो बन्धेय्येवं सकं चित्तं सतियारम्मणे दळ्हं" इध | ति ॥ (वि० दु० २-१२) एवमस्सेतं सेनासनं भावनानुरूपं होति । तेन वुत्तं - " इदमस्स आनापानस्सतिसमाधिभावनारूपसेनासनपरिग्गहपरिदीपनं" ति । अथ वा–यस्मा इदं कम्मट्ठानप्पभेदे मुद्धभूतं सब्बञ्ञबुद्धपच्चेकबुद्धबुद्धसावकानं जो कि दीर्घकाल तक रूप आदि आलम्बनों में लिप्त रहा है, आनापानस्मृतिसमाधिरूप आलम्बन में सरलता से लगना नहीं चाहता । वह अशिक्षित बैल से जुते रथ के समान गलत रास्ते पर ही दौड़ता है। इसलिये जैसे कि कोई ग्वाला दूध देने में उद्विग्न करने वाली गाय का सब दूध पीकर बड़े हुए दुष्ट बछड़े को रास्ते पर लाने के लिये गाय से दूर कर एक ओर बड़ा-सा खूँटा वहाँ उसे रस्सी से बाँध दें, जिससे कि वह बछड़ा इधर उधर कूद फाँद करने पर भी भाग न सकने से उसी खूँटे में (बँधा रहकर ) बैठे या सोये; वैसे ही इस भिक्षु को चाहिये कि बहुत दिनों तक रूपालम्बन आदि का रसपान कर बढ़े हुए दुष्ट चित्त को दमन करने की इच्छा से रूप आदि आलम्बनों से दूर कर अरण्य... पूर्ववत्... शून्यागार में प्रवेश कर, वहाँ श्वास-प्रश्वास रूपी खूँटे में स्मृतिरूप रस्सी से बाँध दे। यों, इसका वह चित्त इधर उधर कूद फाँद कर भी, पूर्व अभ्यस्त आलम्बन को न पाकर, स्मृतिरूप रस्सी को तोड़कर भागने में असमर्थ हो, उसी आलम्बन में (बँधा हुआ) उपचार और अर्पणा के रूप में बैठता और सोता है। इसीलिये प्राचीन विद्वानों ने कहा है- "जैसे कोई मनुष्य दमन किये जाने योग्य बछड़े खूँटे में बाँध दे, वैसे ही अपने चित्त को दृढ़ता के साथ स्मृति द्वारी आलम्बन में बाँधना चाहिये।" यों, इसके लिये यह शयनासन भावना करने योग्य होता है। इसीलिये कहा गया है"यह इसके द्वारा आनापानस्मृति समाधि की भावना के योग्य शयनासन के ग्रहण का सूचक हैं। अथवा – क्योंकि कर्मस्थान के प्रभेदों में श्रेष्ठ यह आनापानस्मृतिकर्मस्थान – जो कि सर्वज्ञ बुद्धों, १. दुद्दमो दमथं अनुपगतो गोणो कूटगोणो ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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