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________________ विसुद्धिमग्ग विनोदनत्थं । सीतब्भाहते हि सरीरे विक्खित्तचित्तो योनिसो पदहितुं न सक्कोति, तस्मा 'सीतस्स पटिघाताय चीवरं पटिसेवितब्ब' ति भगवा अनुनासि। एस नयो सब्बत्थ । केवलं हेत्थ उण्हस्सा ति अग्गिसन्तापस्स। तस्स वनदाहादीसु सम्भवो वेदितब्बो। डंसमकसवातातपसरीपसम्फस्सानं ति। एत्थ पन डंसा ति डंसनमक्खिका, अन्धमक्खिका ति पि वुच्चन्ति। मकसा मकसा एव। वाता ति। सरज-अरजादिभेदा। आतपो ति। सूरियातपो।सरीसपा ति। ये केचि सरन्ता गच्छन्ति दीघजातिका सप्पादयो, तेसंदट्ठसम्फस्सो च फुट्ठसम्फस्सो चा ति दुविधो सम्फस्सो, सो पि चीवरं पारुपित्वा निसिन्नं न बाधति, तस्मा तादिसेसु ठानेसु तेसं पटिघातत्थाय पटिसेवति। यावदेवा ति। पुन एतस्स वचनं नियतपयोजनावधिपरिच्छददस्सनत्थं । हिरिकोपीनपटिच्छादनं हि नियतपयोजनं, इतरानि कदाचि कदाचि होन्ति। तत्थ हिरिकोपीनं ति तं तं सम्बाधट्ठानं। यस्मि यस्मि हि अङ्गे विवरियमाने हिरी कुप्पति विनस्सति, तंतं हिरिं कोपनतो हिरिकोपीनं ति वुच्चति । तस्स च हिरिकोपीनस्स पटिच्छादनत्थं ति हिरिकोपीनपटिच्छादनत्थं । हिरिकोपीनं पटिच्छादनत्थं ति पि पाठो। पिण्डपातं ति।यं किञ्चि आहारं । यो हि कोचि आहारो भिक्खुनो पिण्डोल्येन पत्ते पतितत्ता पिण्डपातो ति वुच्चति। पिण्डानं वा पातो पिण्डपातो, तत्थ तत्थं लद्धानं भिक्खानं के शीत का । पटियाताय- प्रतिहनन (नाश-दूरीकरण) के लिये । जिस विधि से शरीर में किसी प्रकार की बाधा (रोग) उत्पन्न न हो, या (उत्पन्न हो जाय तो) उसके विनाश के लिये। शरीर के शीत से आक्रान्त होने पर व्यथित विक्षिप्तचित्त हो जाने के कारण कार्य का सम्पादन भलीभाँति नहीं कर पाता। अतः भगवान् अनुज्ञा देते हैं-"शीत से बचने के लिये चीवर का उपयोग करना चाहिये।" यही विधि (नय) इस प्रकरण में सर्वत्र समझनी चाहिये। अतः केवल यहाँ (कुछ अतिरिक्त विशिष्ट शब्दों का ही व्याख्यान कर रहे हैं)-उण्हस्स अग्निताप (जलन) का। उसे वन-दाह आदि के समय सम्भव जानना चाहिये। (किसी किसी दावाग्नि का सन्ताप शरीर को चीवर से आच्छन्न कर मिटाया जा सकता हैयह अभिप्राय है।) उंसमकसवातातपसरीसपसम्फस्सानं यहाँ 'डंस' का अर्थ हैं |सने वाली मक्खी। इसे लोकव्यवहार में 'अन्धमक्खी' कहते हैं। मकस का अर्थ है मच्छर (=मशक)। वात-आँधी। यह धूलभरी व विना धूल की-यों दो प्रकार की होती है। आतप-धूप, सूर्य का ताप (गरमी)। सरीसपरेंगने वाले और लम्बी आयु वाले सर्प आदि। उनका डंसना दो तरह से होता है-दाँतों द्वारा काटने से या उनके शरीर-संस्पर्श से भी। यह चीवर ओढ़ने या धारण करने से कट नहीं देता; अतः वैसे स्थानों पर (जहाँ सर्प आदि का बाहुल्य हो) योगावचर चीवर धारण कर इस संस्पर्श से अपना त्राण करता है। यावदेव-केवल । इस शब्द का पुनः प्रयोग (चीवरधारण की) अवधि द्योतित करने के लिये है। (वस्तुतः) गुप्ताङ्गों का आच्छादन इसका निश्चित प्रयोजन है। अन्य प्रयोजन तो कभी-कभी (विशेष अवसरों) के लिये हैं। वहाँ हिरिकोपीन का अर्थ है-गुप्ताङ्ग (शित्र, गुदा) आदि वह वह लज्जा-स्थान। अर्थात् जिस-जिस अज के अनावृत (खुले रहने पर) लज्जा (ही) बाधित होती हो, विनष्ट होती हो, वह वह अन.लज्जाबाधक होने के कारण, हिरिकोपीन' कहलाता है। यहाँ उस हिरिकोपीन के प्रतिच्छादन' के अर्थ में हिरिकोपीन-पटिच्छादनत्थं इस समस्त पद का प्रयोग हुआ है। कोई-कोई यहाँ हिरिकोपीन को प्रतिच्छादन के लिये ऐसा द्वितीयासमासप्रयुक्त पाठ भी मानते हैं। पिण्डपातं-१.जो कुछ भी आहार वह "पिण्डपात' कहलाता है। २. भिक्षुओं को भिक्षा के लिये विचरते समय (-पिण्डोल्य) पात्र में गिरने के कारण भी यह 'पिण्डपात' कहलाता है। अथवा
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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