SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.सीलनिदेस ४५ पापधम्मानं वसेन पवत्तो मिच्छाजीवो, या तस्मा सब्बप्पकारा पि मिच्छाजीवा विरति, इदं आजीवपारिसुद्धिसीलं। तत्रायं वचनत्थो-एतं आगम्म जीवन्ती ति आजीवो। को सो? पच्चयपरियेसनवायामो।पारिसुद्धी ति परिसुद्धता।आजीवस्स पारिसुद्धि आजीवपारिसुद्धि। (घ) पच्चयसन्निस्सितसीलं ३२. यं पनेतं तदनन्तरं पच्चयसन्निस्सितसीलं वुत्तं, तत्थ पटिसङ्घा योनिसो ति। उपायेन पथेन पटिसङ्खाय । ञत्वा, पच्चवेक्खित्वा ति अत्थो। एत्थ च 'सीतस्स पटिघाताया' ति आदिना नयेन वुत्तपच्चवेक्षणमेव "योनिसो पटिसङ्खा" ति वेदितब्बं । तत्थ चीवरं ति।अन्तरवासकादीसुयं किञ्चि। पटिसेवतीति । परिभुञ्जति, निवासेति वा, पारुपति वा।यावदेवा ति। पयोजनावधिपरिच्छेदननियमवचनं । एत्तकमेव हि योगिनो चीवरपटिसेवने पयोजनं यदिदं सीतस्स पटिघाताया ति आदि, न इतो भिय्यो। सीतस्सा ति। अज्झत्तधातुक्खोभवसेन वा बहिद्धाउतुपरिणामनवसेन वा उप्पन्नस्स यस्य कस्सचि सीतस्स। पटिघाताया ति। पटिहननत्थं । यथा सरीरे आबाधं न उप्पादेति, एवं तस्स आजीविका हैं', उन सभी तरह की मिथ्या आजीविकाओं से जो विरति है-यह 'आजीवपारिशुद्धिशील' है। 'आजीवपरिशुद्धिशील' शब्द का सरल अर्थ यह है-जिसके सहारे जीते हैं वह कहलाता है 'आजीव' | वह क्या है? चीवर आदि ढूँढ़ने का प्रयास । अर्थात् प्रत्ययपर्येषणव्यायाम (प्रयत्न)। पारिशुद्धि' कहते हैं परिशुद्धता को। यों यह आजीव की परिशुद्धि ही 'आजीवपारिशुद्धि' कहलाती है। (घ) प्रत्ययसनिश्चित शील ३२. इसके पश्चात् जो यह प्रत्ययसन्निश्रित शील कहा गया है वहाँ (इस प्रसङ्ग के पालिपाठ' में आये) पटिसजा योनिसो का अर्थ है-उपाय से, पथ (शास्त्रोक्त विधि) से एवं प्रतिसङ्ख्यान (ठीकठीक गणना) से, जानकर, प्रत्यवेक्षण कर। यहाँ 'योनिसो पटिसङ्खाय' का अर्थ "शीत के प्रतिघात (नाश) के लिये" आदि पालि-पाठ में कथित विधि से प्रत्यवेक्षण करना योनिशः प्रतिसङ्ख्यान है-ऐसा समझना चाहिये। वहाँ चीवरं अन्तरवासक (चीवर के नीचे पहनने का छोटा वस्त्र अण्डर वीयर) आदि में जो कोई भी वस्त्र । पटिसेवति-उपभोग करता है, पहनता है, ओढ़ता है। यावदेव (केवल)। यह शब्द प्रयोजन (आवश्यकता) की अवधि (सीमा) के परिच्छेदक नियम को द्योतित करता है। अर्थात् योगावचर के चीवर आदि धारण करने का इतना ही प्रयोजन है कि जितने मात्र से उसके शरीर को लगने वाले शीत (ठण्ड) आदि दूर रह सके, इसे अधिक नहीं। सीतस्स-शरीर के आन्तरिक धातुक्षोभ (ज्वर आदि) के कारण या ऋतुपरिणामादिजन्य बाह्य धातुक्षोभ से उत्पन्न जिस किसी तरह १. वह पालि-पाठ इस प्रकार है- "इध, भिक्खवे, भिक्खु (क) पटिसङ्खा योनिसो चीवरं पटिसेवति, यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डंसमकसवातातपसिरिंसपसम्फस्सानं पटिघाताय, यानदेव हिरिकोपीनपटिच्छादनत्यं । (ख) पटिससा योनिसो पिण्डपातं पटिसेवति, ने दवाय, न मदाय, न मण्डनाय, न विभूसनाय, यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय, विहिंसूपरतिया, ब्रह्मचरियानुग्गहाय, इति पुराणं च वेदनं पटिहङ्खामि, नवं च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे भविस्ससति, अनवज्जता च फासु विहारो चाति। (ग) पटिसङ्खा योनिसो सेनासनं पटिसेवति, यावदेव सीतस्स पटिघाताय, उण्हस्स पटिघाताय, डसमकसवातातपसिरिसपसम्फस्सानं पटिघाताय, यावदेव उतुपरिस्सयविनोदनपटिसल्लानारामत्थं । (घ) पटिसङ्खा योनिसो गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारं पटिसेवति, यावदेव उप्पन्नान वेय्यावाधिकानं वेदनानं पटिधाताय, अव्यापज्झपरमताया ति।" (म०नि० १.२.१०; बौद्ध०भा०सं०)
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy