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________________ विसुद्धिमग्ग अब्भङ्गं, परस्स गुणं निप्पेसेति निपुञ्छति, यस्मा वा गन्धजातं निपिसित्वा गन्धमग्गना विय परगुणे निपिसित्वा विचुण्णेत्वा एसा लाभमग्गना होति, तस्मा निप्पेसिकता ति वुच्चती ति। लाभेन लाभं निजिगिंसनतानिद्देसे-निजिगिंसनता इतो लद्धं ति। इमम्हा गेहा लद्धं । अमुत्रा ति। अमुकम्हि गेहे । एट्ठी ति। इच्छना। गवेट्ठी ति। मग्गना। परियेट्ठी ति। पुनप्पुनं मग्गना। आदितो पट्ठाय लद्धं लद्धं भिक्खं तत्र तत्रं कुलदारकानं दत्वा अन्ते खीरयागुं लभित्वा गतभिक्खुवत्थु चेत्थ कथेतब्बं । एसना ति आदीनि एट्ठी-आदीनमेव वेवचनानि। तस्मा एडी ति एसना, गवेठी ति गवेसना, परियेट्ठी ति परियेसनाइच्चेवमेत्थयोजना वेदितब्बा । अयं कुहनादीनं अत्थो। इदानि एवमादीनं च पापधम्मानं ति। एत्थ आदिसद्देन "यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीविकं कप्पेन्ति। सेय्यथीदं-अङ्गं, निमित्तं, उप्पातं, सुपिनं, लक्खणं, मूसिकच्छिन्नं, अग्गिहोम, दब्बिहोमं" (दी०१.१-१२)ति आदिना नयेन ब्रह्मजाले वुत्तानं अनेकेसं पापधम्मानं गहणं वेदितब्बं। इति य्वायं इमेसं आजीवहेतु पञत्तानं छन्नं सिक्खापदानं वीतिकमवसेन, इमेसंच "कुहना, लपना, नेमित्तिकता, निप्पेसिकता, लाभेन लाभं निजिगिंसनता' ति एवमादीनं अभ्यङ्ग (उबटन) आदि को पोंछ डालता है, उसी तरह यह (दुर्गण) भी दूसरे गुणों को पोंछ डालता है, निष्पिष्ट कर डालता है; या फिर क्योंकि जैसे सुगन्धित द्रव्य को पीस कर सुगन्ध खोजी जाती है, वैसे ही यह दूसरों के गुणों को पीसकर, चूर्ण कर अपना लाभ खोजती है, अतः निष्पिष्टक' कही जाती है। ___ लाभ से लाभ खोजने के निर्देश में निजिगिंसनता इतो लद्धं- इस घर से प्राप्त । अमुत्रअमुक घर में। एट्ठि- इच्छा (इष्टि)। गवेट्ठि- मार्गणा (खोजना गवेषणा)! परिएट्ठि- बार-बार खोजना (पर्यषण)। (भिक्षाचर्या के) आरम्भ से प्राप्त भिक्षा को वहाँ वहाँ मिलते जाते परिवारों के बच्चों को देते हुए, अन्त में भिक्षा में मिले क्षीर (मिश्रत अन्न) व यवागू को प्राप्त कर खाने का दृष्टान्त पीछे आयी भिक्षु-कथा की तरह विस्तार से कहना चाहिये। यहाँ (इस प्रसङ्ग में) एसना आदि शब्द 'एट्टि' आदि के ही पर्याय (समानार्थक) समझने चाहिये। इस लिये ‘एट्टि' को एषणा, 'गवेट्टि' को गवेषणा (खोज), 'परियेट्टि' को पर्येषण (बार-बार खोजना)-यों इस तरह यहाँ शब्दयोजना कर लेनी चाहिये। अब एवमादीनं च पापधम्मानं यहाँ आये 'आदि' शब्द से दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में परिगणित उन अनेक पाप-धर्मों का भी संग्रहण कर लेना चाहिये। जैसे वहाँ कहा है "यहाँ समाज में प्रतिठित कुछ श्रमण-ब्राह्मण भी गृहस्थ जनों द्वारा श्रद्धा से प्रदत्त भोजन खाकर ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी (तिर्यक् योनि कोटि की) दुरूह विद्याओं का सहारा लेते हुए मिथ्या आजीविकाओं से अपना जीवन निर्वाह करते हैं। जैसे-हाथ आदि अङ्ग देखकर भविष्य बताना, (ज्योतिष ग्रहगणित), उत्पात (दैवी या प्राकृतिक घटनाओं के शकुन-अपशकुन), स्वप्न का फल बताना, सामुद्रिकशास्त्र के लक्षण, चूहों द्वारा कुतरे गये कपड़े देखकर उनका शुभाशुभ फल बताना, किस प्रकार के काठद्रव्य से हवन करने पर यह फल होता है'-(अग्निहवन) आदि बताना, किस करछुल (दी) से कौन हवन कैसा फलदायक होता है (दर्वी.-होम) बताना।" इस प्रकार आजीविका के लिये प्रज्ञप्त इन छह शिक्षापदों का व्यतिक्रम करना, 'कुहन, . लपन, नैमित्तिकता, लाभ से लाभ को खोजना आदि प्रकार के अकुशल धर्मों से की गयी जो मिथ्या
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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