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________________ १. सीलनिद्देस सन्निपात समूहो ति वृत्तं होति । नेव दवाया ति । न गामदारकादयो विय दवत्थं, कीळानिमित्तं तिवृत्तं होति । न मदायाति । न मुट्ठिकमल्लादयो विय मदत्थं, बलमदनिमित्तं पोरिसमदनिमित्तं चातिवृत्तं होति । न मण्डनाया ति । न अन्तेपुरिकवेसियादयो विय मण्डनत्थं, अङ्गपच्चङ्गानं पण भावनिमित्तं ति वृत्तं होति । न विभूसनाया ति । न नटनच्चकादयो विय विभूसनत्थं, पसनच्छविवण्णतानिमित्तं ति वुत्तं होति । एत्थ च 'नेव दवाया' ति एतं मोहूपनिस्सयप्पहानत्थं वृत्तं । 'न मदाया' ति एतं दोसूपनिस्सयप्पहानत्थं । 'न मण्डनाय न विभूसनाया' ति एतं रागूपनिस्सयप्पहानत्थं । 'नेव दवाय न मण्डनाया' ति चेतं अत्तनो संयोजनुप्पत्तिपटिसेधनत्थं । 'न मण्डनाय न विभूसनाया' ति एतं परस्स पि संयोजनुप्पत्तिपटिसेधनत्थं । चतूहि पि चेहि अयोनिसो पटिपत्तिया कामसुखल्लिकानुयोगस्स च पहानं वुत्तं ति वेदितब्बं । ४७ यावदेवाति वत्तत्थमेव । इमस्स कायस्सा ति । एतस्स चतुमहाभूतिकस्स रूपकायस्स । ठितिया ति । पबन्धट्ठितत्थं । यापनाया ति । पवत्तिया अविच्छेदत्थं, चिरकालट्ठितत्थं वा । घरूपत्थम्भमिव हि जिण्णघरसामिको अक्खब्भञ्जनमिव च साकटिको कायस्स .ठितत्थं यापनत्थं चेस पिण्डपातं पटिसेवति, न दवमदमण्डनविभूसनत्थं । अपि च ठिती ति जीवितिन्द्रियस्सेतं अधिवचनं । तस्मा इमस्स कायस्स ठितिया यापनाया ति एतावता एतस्स कायस्स जीवितिन्द्रियपवत्तापनत्थं ति पि वृत्तं होती ति वेदितब्बं । विहिंसूपरतिया - ३. पिण्डों (ग्रास दो ग्रास मात्र अन्न) का पात 'पिण्डपात' कहलाता है। इसका अर्थ हुआ वहाँ-वहाँ प्राप्त भिक्षा का सन्निपात=समूह'। नेव दवाय का अर्थ है-ग्रामबालकों की तरह क्रीड़ा (=दव) के लिये नहीं । न मदाय का अर्थ है-पहलवानों की तरह शरीर का मद (शक्ति) बढ़ाने के लिये नहीं । शास्त्र में 'मद' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है- १. बलमद और २. पौरुषमद । इस प्रसङ्ग में इन दोनों मदों का ही ग्रहण ग्रन्थकारसम्मत है। न मण्डनाय - न अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों की तरह शारीरिक शोभा (छवि मण्डल) बढ़ाने के लिये, ताकि शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग और अधिक सुन्दर (प्रीणन भाव वाले) लगें। न विभूसनाय न नट या नर्तकों (नाचनेवालों) की तरह शरीर को विभूषित करने हेतु शरीर की शोभा (प्रसन्न छवि) बढ़ाने के लिये । अथ च - यहाँ 'नेव दवाय' - यह पद मोहसम्बन्धी उपनिश्रय के प्रहाण, 'न मदाय' - यह पद द्वेषसम्बन्धी उपनिश्रय ....एवं 'न मण्डनाय न विभूसनाय' - यह पद मोहसम्बन्धी उपनिश्रय के प्रहाण हेतु कहा गया है। 'नेव दवाय न मदाय' यह पदसमूह स्वकीय संयोजनों (बन्धनों) के उत्पाद का प्रतिषेध करने के लिये, और 'न मण्डनाय न विभूसनाय' यह पदसमूह परकीय संयोजनोत्पाद के प्रतिषेध के लिये प्रयुक्त हुए हैं। और इन चारों से मिलकर, अयथार्थ प्रतिपत्ति (ज्ञान) एवं कामसुखल्लिकानुयोग का प्रहाण बताया गया है - ऐसा जानना चाहिये । J यावदेव - इसका पूर्वोक्त ही अर्थ है । इमस्स कायस्स- इस चार महाभूतों से निष्पन्न रूपकाय का । ठितिया - निरन्तर स्थित रहने के लिये । यापनाय - जीवनप्रवाह को अविच्छिन्न बनाये रखने के लिये या चिरकाल तक स्थित रहने के लिये। जीर्णगृह के स्वामी के घर में खम्भा (थम्भ स्तम्भ) लगाने की तरह, या गाड़ीवान की गाड़ी के धुरे में तेल लगाने की तरह इस काया की स्थिति या निर्वाह के लिये पिण्डपात का सेवन करता है; क्रीड़ा, मद, मण्डन का अलङ्करण के लिये नहीं अपितु यहाँ 'स्थिति' शब्द जीवितेन्द्रिय के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसलिये उपर्युक्त इतने व्याख्यान के सहारे, 'इमस्स कायस्स ठितिया, यापनाय' का अर्थ 'जीवितेन्द्रिय के प्रवर्तन को बनाये रखने के लिये'- यह भी
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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