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________________ विसुद्धिमग्ग ति। विहिंसा नाम जिघच्छा आबाधटेन; तस्सा उपरमत्थं पेस पिण्डपातं पटिसेवति, वणालेपनमिव उण्हसीतादीसु तप्पटिकारं विय च। ब्रह्मचरियानुग्गहाया ति। सकलसासनब्रह्मचरियस्स च मग्गब्रह्मचरियस्स च अनुग्गहत्थं । अयं हि पिण्डपातपटिसेवनपच्चया कायबलं निस्साय सिक्खत्तयानुयोगवसेन भवकन्तारनित्थरणत्थं पटिपज्जन्तो ब्रह्मचरियानुग्गहाय पटिसेवति, कन्तारनित्थरणत्थिका पुत्तमंसं विय, नदीनित्थरणत्थिका कुल्लं विय, समुद्दनित्थरणत्थिका नावमिव च।। इति पुराणं च वेदनं पटिहङ्खामि नवं च वेदनं न उप्पादेस्सामी ति। एवं इमिना पिण्डपातपटिसेवनेन पुराणं च जिघच्छावेदनं पटिहङ्खामि, नवं च वेदनं अपरिमितभोजनपच्वयं आहरहत्थक-अलंसाटक-तत्रवट्टक-काकमासक-भुत्तवमितकब्राह्मणानं अञ्जतरो विय न उप्पादेस्सामी ति पि पटिसेवति, भेसज्जमिव गिलानो । अथ वा-या अधुना असप्पायापरिमित-भोजनं निस्साय पुराणकम्मपच्चयवसेन उप्पज्जनतो पुराणवेदना ति वुच्चति, सप्पायपरिमितभोजनेन तस्सा पच्चयं विनासेन्तो तं पुराणं च वेदनं पटिहङ्खामि । या चायं अधुना कतं अयुत्तपरिभोगकम्मूपचयं निस्साय आयतिं उप्पजनतो नववेदना ति वुच्चति, युत्तपरिभोगवसेन तस्सा मूलं अनिब्बत्तेन्तो तं नवं च वेदनं न उप्पादेस्सामी ति एवं पेत्थ समझना चाहिये। विहिंसूपरतिया- यहाँ 'विहिंसा' का अर्थ है रोग । रोग से बचने के लिये भी। वह पिण्डपात का उपभोग करता है घाव (व्रण) पर मरहम के लेपन के समान एवं सर्दी-गर्मी आदि होने पर उनके प्रतीकार के समान । ब्रह्मचरियानग्गहाय-समस्त बद्धशासन में (निहित) ब्रह्मचर्य एवं मार्ग के रूप में ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये । वह पिण्डपात-सेवन के फलस्वरूप प्राप्त शरीर-बल के सहारे (अधिशील, अधिचित्त, अधिप्रज्ञ-इस) शिक्षात्रय की पूर्ति में लगे रहने से, भवकान्तार को पार करने में सन्नद्ध रहते हुए, ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये सेवन करता है; जैसे रेगिस्तान पार करने का इच्छुक व्यक्ति भूख मिटाने के लिये अपने पुत्र के मांस को भी खाने का या नदी के पार जाने का इच्छुक किसी बेड़े का या समुद्रपारगमनेच्छु किसी बड़ी नौका का सहारा लेता है। इति पुरा च वेदनं पटिहवामि नवं च वेदनं उप्पादेस्सामि- 'यो इस पिण्डपातप्रतिसेवन से पुरानी जिघत्सावेदना (भूख के अनुभव) को निवृत्त करूँगा और इस पिण्डपात के अधिक प्रतिसेवन से होने वाले किसी नये रोग को पैदा नहीं होने दूंगा' यह सोचकर पिण्डपात का सेवन करता है, जैसे कोई रोगी पथ्य या औषध का अल्प या उचित मात्रा में ही उपयोग करता हो। यहाँ पिण्डपात के अतिसेवन से होने वाले कुछ रोग, जो कि सामान्यतः उस समय के भोजनभट्ट ब्राह्मणों में हुआ करते थे, आचार्य ने यों गिनाये हैं, जैसे-१. आहरहत्थक (अधिक भोजन के कारण दूसरों के हाथ का सहारा लेकर उठना); २. अलंसाटक (अतिभोजन के कारण, धोती ढीली होने पर पुनः बाँधने में असमर्थ होना); ३. तत्रवट्टक (अति भोजन से उठने में असमर्थ हो उसी जगह लेट जाना): ४. काकमांसक (अतिभोजन से श्वास लेने में असमर्थ ऐसे मुँह खोल कर सोना कि उसके खुले मुँह में कौआ भी अपनी चौंच डालकर उसके गले से खाया अन्न निकाल ले) एवं ५. भुत्तवमितक (जो अधिक खाकर मुख में रखने में असमर्थ हो और वहीं वमन कर दे)। __अथवा, इस वाक्य का अर्थ यों कीजिये- 'पूर्व कर्म के कारण (प्रत्यय) वश एवं इस समय अनुचित व अत्यधिक भोजन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने से जो पुरानी वेदना कही जाती है, उचित परिमित भोजन से उस पुरानी वेदना के प्रत्यय का विनाश करते हुए 'उस पुरानी वेदना को दूर करूँगा' एवं 'जो इस समय किये गये अयुक्त परिभोग-कर्म के फलस्वरूप आगे उत्पन्न होने से नयी
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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