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________________ ४९ १. सीलनिद्देस अत्थो दट्ठब्बो। एत्तावता युत्तपरिभोगसङ्गहो, अत्तकिलमथानुयोगप्पहानं, धम्मिकसुखापरिच्चागो च दीपितो होती ति वेदितब्बो। यात्रा च मे भविस्सती ति।परिमितपरिभोगेन जीवितिन्द्रियुपच्छेदकस्स इरियापथभञ्जकस्स वा परिस्सयस्स अभावतो चिरकालगमनसमाता यात्रा च मे भविस्सति इमस्स पच्चयात्तवुत्तिनो कायस्सा ति पि पटिसेवति, याप्यरोगी विय तप्पच्चयं । अनवज्जता च फासुविहारो चा ति। अयुत्तपरियेसनपटिग्गहणपरिभोगपरिवजनेन अनवजता, परिमितपरिभोगेन फासुविहारो। असप्पायापरिमितपरिभोगपच्चया अरति-तन्दी-विजम्भिताविञ्जगरहादिदोसाभावेन वा अनवज्जता, सप्पायपरिमितभोजनपच्चया कायबलसम्भवेन फासुविहारो। यावदत्थउद-रावदेहकभोजनपरिवजनेन वा सेय्यसुखपस्ससुखमिद्धसुखानं पहानतो अनवज्जता, चतुपञ्चा-लोपमत्तऊनभोजनेन चतुइरियापथयोग्यभावपटिपादनतो फासुविहारो च मे भविस्सती ति पि पटिसेवति। वुत्तं पि हेतं "चत्तारो पञ्च आलोपे अभुत्वा उदकं पिवे। अलं फासुविहाराय पहितत्तस्स भिक्खुनो" ति॥ (खु० २-३६६) एत्तावता च पयोजनपरिग्गहो, मज्झिमा च पटिपदा दीपिता होती ति वेदितब्बा। सेनासनं ति।सेनं च आसनं च। यत्थ यत्थ हि सेति विहारे वा अड्डयोगादिम्हि वा, वेदना कही जाती है, युक्त परिभोग से उसके मूल को ही न उत्पन्न होने देकर उस नयी वेदना को भी उत्पन्न न करूँगा। यहाँ तक (के व्याख्यान) से युक्त (उचित) परिभोग का संग्रह, आत्मक्लमथानुयोगप्रहाण एवं धार्मिक सुख का अपरित्याग-यह सब व्याख्यात हुआ-ऐसा समझना चाहिये। यात्रा च मे भविस्सति- 'परिमित (उचित) परिभोग से जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद (मृत्यु) या ईर्यापथ को बाधित करने वाले उपद्रव (परिश्रय) के अभाव से चिरकाल तक चलते रहना ( गमन या जीते रहना) कहलाने वाली मेरी जीवनयात्रा होती रहेगी ऐसा सोचकर पिण्डपात का सेवन करता है; जैसे गम्भीर रोगी औषध का सेवन करता हो। अनवज्जता च फासुविहारो च- अयुक्त के पर्येषण एवं परिभोग का त्याग करने से अनवद्यता; परिमित परिभोग करने से सुखविहार । अथवा-अनुचित, अपरिमित परिभोग के प्रत्यय से (उत्पन्न) शरीरबल से उद्भूत उदासी, तन्द्रा, जम्हाई-इन विद्वन्निन्दित दोषों के अभाव से अनवद्यता; एवं उचित परिमित भोजन के प्रत्यय से उत्पन्न शरीरबल के उत्पाद से सुखविहार । अथवा-जितना हो सके उतना तूंस-ठूस कर भोजन करने के परिवर्जन से शय्यासुख, पार्श्वसुख (आलस्य वा खाट पर पड़े रहना), मृद्ध (तन्द्रायुक्त आलस्य) सुख के प्रहाण से अनवद्यता: ('जितनी भूख हो उससे) चार-पाँच .. ग्रास भोजन कम कर शरीर को चारों ईर्यापथों के अनुकूल बनाने से मेरी साधना सुखपूर्वक होती रहेंगी'-यह (सोचकर) भी सेवन करता है। त्रिपिटक में यह भी कहा है ("भोजन में) चार-पाँच ग्रास कम खाकर (उसके स्थान पर) जल पी ले-यही उस निर्वाणहेतु प्रयासरत भिक्षु की सुखपूर्विका साधना में पर्याप्त (सहायक) होगा।" __ इतने व्याख्यान से प्रयोजन का प्रतिग्रह एवं मध्यमा प्रतिपदा का व्याख्यान हुआ-यह जानना चाहिये। सेनासनं- शयन और आसन। भिक्षु जहाँ जहाँ शयनक्रिया करे, फिर भले ही वह विहार हो
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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