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विसुद्धिमग्ग तं सेनं । यत्थ यत्थ आसति निसीदति, तं आसनं। तं एकतो कत्वा सेनासनं ति वुच्चति। उतुपरिस्सयविनोदनपटिसल्लानारामत्थं ति। परिसहनटेन उतु येव उतुपरिस्सयो। उतुपरिस्सयस्स विनोदनत्थं च पटिसल्लानारामत्थं च। यो सरीराबाधचित्तविक्खेपकरो असप्पायो उतु सेनासनपटिसेवनेन विनोदेतब्बो होति, तस्स विनोदनत्थं एकीभावसुखत्थं चा ति वुत्तं होति। कामं च सीतपटिघातादिना व उतुपरिस्सयविनोदं वुत्तमेव। यथा पन चीवरपटिसेवने हिरिकोपीनपटिच्छादनं नियतपयोजनं, इतरानि कदाचि कदाचि भवन्तो ति वुत्तं, एवमिधापि नियतं उतुपरिस्सयविनोदनं सन्धाय इदं वुत्तं ति वेदितब्बं ।
अथ वा-अयं वुत्तप्पकारो उतु उतु येव। परिस्सयो पन दुविधो-पाकटपरिस्सयो च, पटिच्छन्नपरिस्सयो च। तत्थ पाकटपरिस्सयो सीहब्यग्घादयो, पटिच्छन्नपरिस्सयो रागदोसादयो। ते यत्थ अपरिगुत्तिया च असप्पायरूपदस्सनादिना च आबाधं न करोन्ति, तं सेनासनं एवं जानित्वा पच्चवेक्खित्वा पटिसेवन्तो भिक्खु पटिसङ्घा योनिसो सेनासनं उतुपरिस्सयविनोदनत्थं पटिसेवती ति वेदितब्बो।
गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारं ति। एत्थ रोगस्स पटिअयनटेन पच्चयो, पच्चनीकगमनद्वैना ति अत्थो। यस्स कस्सचि सप्पायस्सेतं अधिवचनं। भिसक्कस्स कम्म तेन अनुज्ञातत्ता ति भेसजं। गिलानपच्चयो व भेसज्जं गिलानपच्चयभेसज्जं। यं किञ्चि या अहयोग आदि हो वह 'शयन' कहलाता है। जहाँ-जहाँ भी वह आसीन होता है बैठता है वह 'आसन' कहलाता है। वे दोनों मिल कर 'शयनासन' कहे जाते हैं। उतुपरिस्सयविनोदनपटिसालानारामत्थं-ऋतु ही ऋतुपरिश्रय है। ऋतु के परिश्रय (उपद्रव) को दूर हटाने एवं चित्त को सुखपूर्वक एकाग्र करने (पटिसल्लान) के लिये। जो शरीर में रोग तथा चित्त का विक्षेप कर विघ्न होते हैं उन्हें ऋतु, शयन आसन आदि के उचित सेवन से दूर करना चाहिये। इस (ऋतुपरिश्रय) को निष्प्रभाव करने के लिये तथा एकाग्रता-सुख की प्राप्ति के लिये इस शब्दसमूह का प्रयोग किया गया है। यद्यपि साधारणतः शीतप्रतिघातादि के रूप में ऋतुपरिश्रय को निष्प्रभाव करना पहले भी व्याख्यानप्रसङ्ग में कहा जा चुका है, किन्तु जैसे चीवर के उपयोगसम्बन्धी व्याख्यान में ही कौपीनाच्छादन को चीवर का नियत प्रयोजन बताया गया है, बाकी प्रयोजन तो कादाचित्क ही कहे गये हैं, उसी प्रकार इस व्याख्यानप्रसङ्ग में भी नियत ऋतुपरिश्रय का दूरीकरण (शयनासन में) बताने के लिये यह कहा गया है-ऐसा जानना चाहिये।
अथवा यों भी व्याख्यान किया जा सकता है-ऋतु का व्याख्यान तो साधारणतः जो होता है वही है। हाँ, उसका परिश्रय दो प्रकार का है- १. प्रकटपरिश्रय और २. प्रच्छन्नपरिश्रय । उनमें, सिंह व्याघ्रादि प्रकटपरिश्रय के रूप में देखे जाते हैं और राग-द्वेष आदि प्रच्छन्नपरिश्रय के रूप में । वे जहाँ छिपकर न रहने व अयुक्त रूपदर्शन आदि के कारण बाधा न पहुँचाते हों (क्योंकि व्याघ्रादि तो छिपकर न रहने एवं राग-द्वषादि अयुक्त रूपदर्शन से ही बाधा पहुंचाते हैं)। उस शयन-आसन को यों जानकर, सोच-विचार कर सेवन करने वाला भिक्षु ऋतुपरिश्रय को निष्प्रभाव करने के लिये प्रज्ञा से सम्यक्तया जानकर शयनासन का उपयोग करता है-इस प्रकार समझना चाहिये।
गिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारं- यहाँ रोग के प्रत्ययन (विपक्ष) अर्थ में 'प्रत्यय' का प्रयोग है। इसका अर्थ है- (रोग के) विरुद्ध होना । जो कुछ भी (रोग के विरुद्ध) युक्त है, पथ्य (सप्पाय) है, अनुकूल है-उसका यह अधिवचन (पर्याय) है। इसके द्वारा भिषक (वैद्य) का चिकित्साकर्म अनुज्ञात