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________________ ५१ गिलानस्स सप्पायं भिसक्ककम्मं तेलमधुफाणितादी ति वुत्तं होति। परिक्खारो ति पन "सत्तहि नगरपरिक्खारेहि सुपरिक्खतं होति" (अं०३-२३४)ति आदीसु परिक्खारो वुच्चति। "रथो सीलपरिक्खारेहि झानक्खो चक्कवीरियो"(सं०४-७)ति आदीसु अलङ्कारो। "ये च खो इमे पब्बजितेन जीवितपरिक्खारा समुदानेतब्बा" (म०१-१४१)ति आदीसु सम्भारो: इध पन सम्भारो पि परिवारो पि वट्टति तं हि गिलानपच्चयभेसज्जं जीवितस्स परिवारो पि होति, जीवितनासकाबाधुप्पत्तिया अन्तरं अदत्वा रक्खणतो सम्भारो पि। यथा चिर पवत्तति, एवमस्स कारणभावतो, तस्मा परिक्खारो ति वुच्चति । एवं गिलानपच्चयभेसज्जं च तं परिक्खारो चा ति गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारो, तं गिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खारं गिलानस्स यं किञ्चि सप्पायं भिसक्कानुञातं तेलमधुफाणितादिजीवितपरिक्खारं ति वुत्तं होति। उप्पन्नानं ति। जातानं भूतानं निब्बत्तानं। वेय्याबाधिकानं ति। एत्थ ब्याबाधो ति धातुक्खोभो, तं समुट्ठाना च कुट्ठगण्डपिळकादयो। ब्याबाधतो उप्पन्नता वेश्याबाधिका। वेदनानं ति। दुक्खवेदना अकुसलविपाकवेदना, तासं वेय्यानाधिकार वेदनानं। अब्याब'झपरमताया ति। निढुक्खपरमताय । याव तं दुक्खं सब्बं पहीनं होति तावा ति अत्थो । होता है, अतः यह भैषज्य है। ग्लान (रोगी) का प्रत्यय (पथ्य) ही 'भैषज्य है, अतः यह 'ग्लानप्रत्ययभैषज्य' है। रोगी की जो कुछ भी पथ्यानुकूल ओषधियाँ हैं जैसे तैल, मधु, घृत, फाणित (=फेन से उत्पन्न वस्तु । घृत भी दूध के फेन से निकलता है, अतः ‘फाणित' कहलाता है)-सभी 'भैषज्य' कहलाती हैं। परिष्कार-यह शब्द त्रिपिटक में स्थान-स्थान पर कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे-"सात नगरपरिष्कारों' से सुपरिष्कृत होता है" (अ०नि० ३-२३४) आदि स्थानों में परिष्कार' शब्द परिवार (खाई से घिरे रहना) अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "आर्यमार्गरूपी रथ शीलपरिष्कार से सम्पन्न है, ध्यान भावना इसकी धुरी एवं उस भावना की प्राप्ति के लिये उद्योग (वीर्य) करना उसका चक्र है"-यहाँ परिष्कार शब्द अलङ्कार (आभूषण) अर्थ में प्रयुक्त है।"प्रव्रजित के द्वारा ये जीवनपरिष्कार (जीवनसाधन) जुटाने योग्य है"-यहाँ परिकार' शब्द 'साधन'-अर्थ में प्रयुक्त है। परन्तु प्रस्तुत प्रसङ्ग में इस शब्द का 'सम्भार' (संग्रह) या 'परिवार' अर्थ ही उचित है; क्योंकि वह ग्लानप्रत्ययभैषज्य जीवन का साधन भी होता है और जीवन-नाशक रोगों की उत्पत्ति के लिये अवसर न देते हुए, रक्षा करने से 'सम्भार' भी होता है। चिरकाल तक चलते रहने का कारण होने से 'परिष्कार' कहा जाता है। यों, वह ग्लानप्रत्ययभैषज्य भी है और परिष्कार भी, अतः यह हुआ 'ग्लानप्रत्ययभैषज्यपरिष्कार'। उसको वैद्यों द्वारा अनुज्ञात तैल, मधु, घृत आदि जो कुछ भी औषध हैं उन्हें 'जीवन-परिष्कार' कहा गया है। उप्पन्नानं- जन्मे हुओं का , प्रादुर्भूत हुओं का, निवृत्त हुओं का। वेय्यावाधिकानं यहाँ व्याबाधा का अर्थ है शरीरगत धातुक्षोभ एवं उत्पन्न कुष्ठरोग, गलगण्ड या व्रण आदि विकार । व्याबाधा से उत्पन्न हुआ 'वैयाबाधिक कहलाता है। वेदनानं दुःखात्मक वेदना या अकुशल-विपाक वेदना का। अव्यावज्झपरमताय- दुःखरहित होने के लिये। अर्थात् जब तक वह रोगनिमित्तक दुःख सर्वात्मकतया निर्मूल न हो तब तक के लिये (-यह अर्थ) समझना चाहिये। ५. अनुकथा में ये सात 'नगरपरिष्कार' बताये गये हैं; जैसे- (१) एसिका (इन्द्रकील). (२) खाई. (१) विस्तृत मार्ग.(४) विशाल आयुभाण्डागार, (५) सेना, (६) चतुर द्वारपाल और (७) ऊँची व चौड़ी चहारदीवारी परन्तु अ0 नि० (७. ७. ३) में इस गणना में कुछ भिन्नता दिखायी देती है। जैसे-(१) किवाड़, (२) खाई. (३) नीव, (४) चहारदीवारी (प्राकार). (५) इन्द्रकील. (६) चौखट एवं (७) चहारदीवारी का द्विगुण या त्रिगुण विस्तार ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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