________________
विसुद्धिमग्ग एवमिदं सळेपतो पटिसला योनिसो पच्चयपरिभोगलक्खणं पच्चयसनिस्सितसीलं वेदितब्बं । वचनत्थो पनेत्थ-चीवरादयो हि यस्मा ते पटिच्च निस्साय परिभुञ्जमाना पाणिनो अयन्ति पवत्तन्ति, तस्मा पच्चया ति वुच्चन्ति। ते पच्चये सन्निस्सितं ति पच्चयसन्निस्सितं॥
चतुपारिसुद्धिसम्पादनविधि
१. पातिमोक्खसंवरसुद्धिसम्पादनविधि ३३. एवमेतस्मिं चतुब्बिधे सीले सद्धाय पातिमोक्खसंवरो सम्पादेतब्बो। सद्धासाधनो हि सो, सावकविसयातीतत्ता सिक्खापदपञत्तिया। सिक्खापदपत्तियाचनपटिक्खेपो चेत्थ निदस्सनं । तस्मा यथा पञ्जत्तं सिक्खापदं अनवसेसंसद्धाय समादियित्वा जीविते पि अपेक्खं अकरोन्तेन साधुकं सम्पादेतब्बं । वुत्तं पि हेतं
"किकी व अण्डं चमरी व वालधिं, पियं व पुत्तं नयनं व एककं।
तथेव सीलं अनुरक्खमानका सुपेसला होथ सदा सागरवा" ति॥
अपरं पि वुत्तं-"(सेय्यथापि महासमुद्दो ठितधम्मो नातिवकामति) एवमेव खो, पहाराद, यं मया सावकानं सिक्खापदं पञत्तं, तं मम सावका जीवितहेतु पि नातिकमन्ती" (अं०नि० ३-३०९) ति।इमस्मि च पनत्थे अटवियं चोरेहि बद्धथेरानं वत्थूनि वेदितब्बानि।
महावत्तनिअटवियं किर थेरं चोरा काळवल्लीहि बन्धित्वा निपज्जपेसुं। थेरो यथानिपन्नो
यों, संक्षेप में यह प्रतिसङ्ख्यान (सूक्ष्म विश्लेषण) से भली-भाँति समझकर प्रत्ययपरिभोग वाले प्रत्ययसनिश्रित शील को जानना चाहिये। उक्त वाक्यावलि का सरलार्थ यह है क्योंकि उनके प्रत्यय (कारण) से परिभोग करते हुए प्राणी चलते हैं, अपने जीवन में गति लाते हैं, अतः चीवर आदि "प्रत्यय' कहे जाते हैं। उन प्रत्ययों से सन्नित्रित (सम्बद्ध) शील 'प्रत्ययसनिश्रित' कहलाता है।
चार परिशुद्धिसम्पादनविधियाँ (१) प्रतिमोक्षसंवरशुद्धिसम्पादनविधि
३३. यों, इस उपर्युक्त चतुर्विध शील में श्रद्धा द्वारा प्रातिमोक्षसंवर पूर्ण करना चाहिये; क्योंकि उस शील की प्राप्ति में श्रद्धा ही साधन (सहारा) है। नये शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति (रचना, व उसका दूसरों को उपदेश) श्रावक के अधिकार से बाहर की बात है। इसमें (विनयपिटक-पाराजिक खण्ड में आयी) आयुष्मान् सारिपुत्र द्वारा भगवान् से नये शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति की याचना पर भगवान द्वारा उसका निषेध बतलाने वाली कथा ही प्रमाण (निदर्शन) है। इसलिये (भगवान् द्वारा) जैसे भी शिक्षापद (साधनाविधि) प्रज्ञप्स हैं उन पर पूर्ण श्रद्धा रखते हुए, अपने जीवन को भी दाव पर लगा कर, उनको पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिये। क्योंकि कहा भी है
"जैसे टिटहरी (पक्षी) अपने अण्डे की, चमरी (जाति की गौ) अपनी पूँछ की, माता (अपने इकलौते) पुत्र की, काणा (अपनी बची) एक आँख की रक्षा करता है; वैसे ही तुम अपने शील की रक्षा करते हुए (उसके प्रति) प्रेम और गौरव रखने वाले बनो।।
और (अङ्गुत्तरनिकाय ३-३०९ में) भी कहा है- ("जैसे महासमुद्र अपने स्थान पर स्थित रहता हुआ अपने तट को कभी नहीं लाँघता:) उसी तरह प्रबाद! मैंने अपने श्रावकों के लिये जो शिक्षापद प्रज्ञप्त किये हैं, उन्हें वे अपने जीवन पर सङ्कट आने पर भी, अतिक्रान्त नहीं करते"। इस प्रसङ्ग को प्रमाणित करने के लिये (त्रिपिटक में आयी) वन में चोरों द्वारा शृङ्खलाबद्ध भिक्षुओं की -कथाएँ प्रस्तुत करनी चाहिये। (जैसे-)