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१. सीलनिद्देस
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व सत्त दिवसानि वढ्ढेत्वा अनागामिफलं पापुणित्वा तत्थेव कालं कत्वा ब्रह्मलोके निब्बत्ति । अपरं पिथेरं तम्बपणिदीपे पूतिलताय बन्धित्वा निपज्जापेसुं । सो वनदाहे आगच्छन्ते वल्लिं अच्छिन्दित्वा व विपस्सनं पट्टपेत्वा समसीसी हुत्वा परिनिब्बायि । दीघभाणकअभयत्थेरो हि भिक्खुसतेहि सद्धिं आगच्छन्तो दिस्वा थेरस्स सरीरं झापेत्वा चेतियं कारापेसि । तस्मा अञ्ञो पि सद्धो कुलपुत्तो
पातिमोक्खं विसोधेन्तो अप्पेव जीवितं जहे । पञ्ञत्तं लोकनाथेन न भिन्दे सीलसंवरं ॥ २. इन्द्रियसंवरसुद्धिसम्पादनविधि
३४. यथा च पातिमोक्खसंवरो सद्धाय, एवं सतिया इन्द्रियसंवरो सम्पादेतब्बो । सतिसाधनो हि सो, सतिया अधिट्ठितानं इन्द्रियानं अभिज्झादीहि अनन्वारसवनीयतो । तस्मा "वरं, भिक्खवे, तत्ताय अयोसलाकाय आदित्ताय सम्पज्जलिताय सजोतिभूताय चक्खुन्द्रियं सम्पलिमट्ठ, न त्वेव चक्खुविञ्जेय्येसु रूपेसु अनुब्यञ्जनसो निमित्तग्गाहो" (सं० ३ - १५२) ति आदिना नयेन आदित्तपरियायं समनुस्सरित्वा रूपादिसु विसयेसु
(१) महावर्तनी अटवी (विन्ध्याटवी या हिमालय के पार्श्वस्थित किसी पर्वत की उपत्यका के उनप्रदेश) में कालवल्ली (कोई विशेष लता) से बाँध कर स्थविर को लिटा दिया। स्थविर ने उसी अवस्था में (लेटे ही लेटे) सात ही दिनों में विपश्यना बढ़ाकर अनागामिफल प्राप्त करते हुए वहीं स्वशरीर त्याग कर ब्रह्मलोक में अवतार लिया।
(२) एक अन्य स्थविर को भी चौरों ने पूतिलता (गिलोय बेल) से बाँधकर वहीं पटक दिया। बाद में उस स्थविर ने, वन में आग लग जाने पर लता को विना तोड़े ही (क्योंकि हरी लता को तोड़ना शिक्षापदों में पाचित्तिय दोष माना गया है) विपश्यना कर के जीवितसमसीसी ('या तो मेरी मृत्यु ही होगी या इस सङ्कल्प को ही पूरा करूंगा' - ऐसे दृढ़ निश्चयी होकर निर्वाण प्राप्त कर लिया । दीर्घभाणक ( दीघनिकाय को कण्ठतः सुनाने वाले) अभय - स्थविर ने पाँच सौ भिक्षुओं के साथ आते हुए, उस निर्वाणप्राप्त भिक्षु को उस अवस्था में देखकर उसके शरीर का संस्कार करते हुए उस पर चैत्य बनवा दिया। अतः अन्य श्रद्धावान् कुलपुत्र को भी
प्रातिमोक्ष (भिक्षुनियमों) का, , जैसा कि भगवान् ने उन्हें प्रज्ञप्त किया है, विशुद्ध हृदय से पालन करते हुए, भले ही इस कर्त्तव्यपूर्ति में उसके प्राण ही क्यों न चले जाँय, शीलसंवर का उल्लखन कदापि नहीं करना चाहिये ।
(२) इन्द्रियसंवरशुद्धिसम्पादनविधि
३४. जैसे प्रातिमोक्षसंवरशील का पालन स्मृति के सहारे होता है वैसे ही इन्द्रियसंवरशील का पालन भी स्मृति के सहारे सम्पन्न करना चाहिये; क्योंकि उस संवर की रक्षा में स्मृति का ही सहारा है। अतः स्मृति से अधिष्ठित होने के कारण (उस योगावचर की) इन्द्रियाँ अभिध्यादि दुर्गुणों से प्रोत्साहित नहीं होतीं । अतः "भिक्षुओ ! भले ही कोई गर्म, जलती, धधकती, चमकती लोहे की शलाकाओं से चक्षुरिन्द्रिय को फोड़ डाले, परन्तु चक्षुर्विज्ञेय रूपसम्बन्धी विषयों में अनुव्यअन (आकार, बनावट) के अनुसार निमित्त का ग्रहण करना कथमपि अच्छा नहीं" इत्यादि त्रिपिटिकोक्त कथन से आदित्यपर्यायसूत्र का स्मरण कर, रूपादि विषयों में चक्षुर्द्वार आदि से उत्पन्न विज्ञान का लोभ आदि को प्रोत्साहित करने वाले निमित्त आदि के ग्रहण को निरन्तर बनी रहने वाली स्मृति रोकते हुए इस इन्द्रियसंवर को करना चाहिये। इसके, इस प्रकार न पालन करने पर, पूर्वोक्त