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विसुद्धिमग्ग
चक्खुद्वारादिपवत्तस्स विञ्ञाणस्स अभिज्झादीहि अन्वास्सवनीयं निमित्तादिग्गाहं असम्मुठ्ठाय सतिया निसेधेन्तेन एस साधुकं सम्पादेतब्बो । एवं असम्पादिते हि एतस्मि पातिमोक्खसंवरसीलं पि अनद्धनियं होति अचिरट्ठितिकं, असंविहितसाखापरिवारमिव सस्सं । हञ्ञते चायं किलेसचोरेहि, विवटद्वारो विय गामो परस्सहारीहि । चित्तं चस्स रागो समतिविज्झति, दुच्छन्नमगारं वुट्ठि विय। वुत्तं पि हेतं
"रूपेसु सद्देसु अथो रसेसु गन्धेसु फस्सेसु च रक्ख इन्द्रियं ।
एते हि द्वारा विवटा अरक्खिता हनन्ति गामं व परस्सहारिनो " ॥ "यथा अगारं दुच्छन्नं वुट्ठि समतिविज्झति ।
एवं अभावितं चित्तं रागो समतिविज्झती " ति ॥ (खु० १-१३) सम्पादिते पन तस्मिं पातिमोक्खसंवरसीलं पि अद्धनियं होति चिरट्ठितिकं, सुसंविहितसाखापरिवारमिव सस्सं । न हञ्ञते चायं किलेसचोरेहि, सुसंवृतद्वारो विय गामो परस्सहारीहि । न चस्स चिज्रं रागो समतिविज्झति, सुच्छन्नमगारं वुट्ठि विय । वुत्तं पि चेतं"रूपेसु सद्देसु अथो रसेसु गन्धेसु फस्सेसु च रक्ख इन्द्रियं । एते हि द्वारा पिहिता सुसंवुता न हन्ति गामं व परस्सहारिनो " ॥
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"यथा अगारं सुच्छन्नं वुट्ठि न समतिविज्झति ।
एवं सुभावितं चित्तं रागो न समतिविज्झती" ति ॥ (खु०१-१४) अयं पन अतिक्कट्ठदेसना । चित्तं नामेतं लहुपरिवत्तं, तस्मा उप्पन्नं रागं असुभमनसि -
प्रातिमोक्षसंवरशील भी बहुत समय तक साथ न देने वाला या बहुत समय स्थिर न रहने वाला हो जाता है, जैसे कि कटीले शाखा-समूहों के अवरोध से न घेरी हुई धान (शस्य) की खेती । अन्त में यह क्लेशरूपी चोरों से मार डाला जाता है, जैसे खुले द्वारों वाला ग्राम लुटेरों द्वारा लूट लिया जाता है। उस अवस्था में राग इसके चित्त में प्रविष्ट हो जाता है; जैसे ठीक से न छाये हुए घर में वर्षा का जल घुस जाता है। (त्रिपिटक में) कहा भी है
"रूप, शब्द, रस, गन्ध एवं स्पर्श के विषयों में अपनी इन्द्रियों को सुरक्षित रखें; क्योंकि ये खुले इन्द्रियद्वार अरक्षित साधक को वैसे ही मार देते हैं जैसे खुले द्वारों वाले ग्राम को लुटेरे लूट ले जाते हैं ।
" जैसे ठीक से न छायी हुई छत वाले घर में वर्षा का जल विना किसी अवरोध के प्रविष्ट हो जाता है, उसी तरह साधनाभ्यास में आलसी भिक्षु के चित्त में राग आदि अकुशल धर्म प्रविष्ट हो जाते हैं ।
फिर, इस (इन्द्रियसंवर) का पालन किये जाने पर वह प्रातिमोक्षसंवर दूर तक साथ देने वाला (अद्धनिय) तथा चिरकालस्थायी होता है; जैसे कँटीली झाड़ियों से घेरी हुई धान की खेती । यह साधक क्लेशरूपी चोरों से नहीं मारा जाता। इसके इस शुद्ध चित्त में राग भी नहीं प्रविष्ट हो पाता, जैसे सञ्छन्न घर में वर्षा का जल। कहा भी है
" रूप के... पूर्ववत्... बचाओ । इन इन्द्रियद्वारों के बन्द होने पर विषय साधक को उसी तरह नहीं मार पाते, जैसे पिहितद्वार (बन्द दरवाजों वाले) ग्राम को लुटेरे नहीं लूट पाते।"
"जिस तरह सम्यगाच्छादित घर में वर्षा का जल नहीं प्रविष्ट हो पाता, उसी तरह जिस्के इन्द्रियद्वार संवृत हैं उसके भावित चित्त में राग नहीं घुस पाता।" (खु०१-१४)