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१. सीलनिद्देस
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कारेन विनोदेत्वा इन्द्रियसंवरो सम्पादेतब्बो, अधुनापब्बजितेन वङ्गीसत्थेरेन विय। थेरस्स किर अधुनापब्बजितस्स पिण्डाय चरतो एकं इत्थिं दिस्वा रागो उप्पज्जि । ततो आनन्दत्थेरं
आह
थेरो आह
"कामरागेन डय्हामि चित्तं मे परिडव्हति । साधु निब्बानं ब्रूहि अनुकम्पाय, गोतमा " ति ॥
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“सञ्ञाय विपरियेसा चित्तं ते परिडव्हति । निमित्तं परिवज्जेहि सुभं रागूपसंहितं । असुभाय चित्तं भावेहि एकग्गं सुसमाहितं ॥ सङ्घारे परत पस्स दुक्खतो नो च अत्ततो ।
निब्बापेहि महारागं मा डव्हित्थो पुनप्पुनं " ॥ ति ॥ (सं० १ - १८८) धेरो रागं विनोदेत्वा पिण्डाय चरि ।
अपि च - इन्द्रियसंवरपूरकेन भिक्खुना कुरण्डकमहालेणवासिना चित्तगुत्तत्थेरेन विय चोरकमहाविहारवासिना महामित्तत्थेरेन विय च भवितब्बं । कुरण्डकमहालेणे किर सत्तन्नं बुद्धान्नं अभिनिक्खमनचित्तकम्मं मनोरमं अहोसि, सम्बहुला भिक्खू सेनासनचारिकं आहिण्डन्ता चित्तकम्मं दिस्वा "मनोरमं भन्ते, चित्तकम्मं " ति आहंसु । थेरो आह"अतिरेकसट्ठि मे, आवुसो, वस्सानि लेणे वसन्तस्स 'चित्तकम्मं अत्थी' ति पि न जानामि,
इधर यह देशना (बुद्धोपदेश) अत्युत्कृष्ट है, उधर वह चित्त जल्दी-जल्दी परिवर्तित होने वाला है। अतः उत्पन्न राग को अशुभ - चिन्तनपद्धति से दूर कर कुछ ही समय पूर्व प्रव्रजित क्ङ्गीस स्थविर के समान इन्द्रियसंवर शील का पालन करना चाहिये। उस नवप्रव्रजित भिक्षु को भिक्षा करने जाते समय किसी स्त्री के प्रति कामराग उत्पन्न हो गया। उसने आनन्दस्थविर से पूछा
" हे गौतम! मैं कामराग (रूपी अग्नि) से जला जा रहा हूँ। इस अग्नि के शमन (निर्वापण) का कोई उपाय बतलाइये?"
(आनन्द) स्थविर ने कहा
" संज्ञा के विपर्यय (विपरीत संज्ञा) से तुम्हारा चित्त रागाग्नि से जल रहा है। तुम उस राग की ओर प्रवृत करने वाले शुभ (स्त्री-सौन्दर्य) निमित्त का त्याग कर दो (अपितु ) चित्त को एकाग्र व सुसमाहित कर इस अशुभ की भावना करो। संस्कारों को परतः (प्रतीत्य) समुत्पन्न अत एव अनित्य समझते हुए इन्हें दुःखमय एवं अनात्म के रूप में समझो। इस तरह इस कामराग की अतिशयता को समाप्त कर डालो। इससे बार-बार जलो नहीं ।"
यों, आनन्दस्थविर की सत्प्रेरणा से उस स्थविर ने अपने कामराग को समाप्त कर पुनः भिक्षाटन प्रारम्भ किया ।
अपि च, इस इन्द्रियसंवर के पूरक को कुरण्डकमहालेणवासी भिक्षु चित्रगुप्तस्थविर या चोरकमहाविहारवासी महामित्रस्थविर की तरह आचरण वाला होना चाहिये ।
(१) कुरण्डकमहालेण में सात बुद्धों के संसार - (गृह) त्याग की चित्र-रचना अतिमनोहर थी। कभी बहुत से भिक्षु, शयनासन की खोज में घूमते हुए वहाँ आये। उन्होंने वहाँ उस चित्रकर्म को १. यह आनन्द को गोत्र-नाम से सम्बोधन है।