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विसुद्धिमग्ग अज्ज दानि चक्खुमन्ते निस्साय जातं" ति। थेरेन किर एत्तकं अद्धानं वसन्तेन चक्खें उम्मीलेत्वा लेणं न उल्लोकितपुब्बं । लेणद्वारे चस्स महानागरुक्खो पि अहोसि। सो पि थेरेन उद्धं न उल्लोकितपुब्बो। अनुसंवच्छरं भूमियं केसरनिपातं दिस्वा वस्स पुप्फितभावं जानाति।
राजा थेरस्स गुणसम्पत्तिं सुत्वा वन्दितुकामो तिक्खत्तुं पेसेत्वा अनागच्छन्ते थेरे तस्मि गामे तरुणपुत्तानं इत्थीनं थने बन्धापेत्वा लञ्छापेसि"ताव दारका थञ्जमा लभिंसु, याव थेरो न आगच्छती" ति। थेरो दारकानं अनुकम्पाय महागामं अगमासि। राजा सुत्वा"गच्छथ, भणे, थेरं पवेसेथ, सीलानि गहिस्सामी" ति अन्तेपुरं अभिहरापत्वा वन्दित्वा भोजेत्वा-"अज, भन्ते, ओकासो नत्थि, स्वे सीलानि गहिस्सामी" ति थेरस्स पत्तं गहेत्वा थोकं अनुगन्त्वा देविया सद्धिं वन्दित्वा निवत्ति। थेरो राजा वा वन्दतु देवी वा, "सुखी होतु, महाराजा ति" वदति। एवं सत्त दिवसा गता। भिक्खू आहंसु-"किं, भन्ते, तुम्हे रजे पि वन्दमाने देविया पि वन्दमानाय, 'सुखी होतु, महाराज' इच्चेव वदथा" ति। थेरो"नाहं, आवुसो, राजा ति वा देवी ति वा ववत्थानं करोमी" ति वत्वा सत्ताहातिकम्मे "थेरस्स इध वासो दुक्खो" ति रञा विस्सज्जितो कुरण्डकमहालेणं गन्त्वा रत्तिभागे चमं आरुहि। नागरुक्खे अधिवत्था देवता दण्डदीपिकं गहेत्वा अट्ठासि । अथस्स कम्मट्ठानं
देखकर स्थविर से कहा-"भन्ते! यह चित्ररचना तो बहुत सुन्दर बनी है।" स्थविर बोले-"आयुष्मानो! मुझे इस लेण में रहते आज साठ वर्ष से अधिक हो गये। मैं अब तक नहीं जान पाया कि यहाँ दीवालों पर कोई चित्ररचना भी है। आज आप जैसे चक्षुष्मानों के कारण मैं यह जान पाया हूँ।" स्थविर ने इतने समय से वहाँ रहते हुए भी आँखें खोल कर उस लेण को ऊपर-नीचे से नहीं देखा था। इस गुफा के द्वार पर एक नागकेसर (प्रपुन्नाग) का विशाल वृक्ष था । उसे भी स्थविर ने कभी ऊपर से नीचे तक पूरा नहीं देखा था। वे प्रतिवर्ष (ऋतु आने पर) भूमि पर गिरी उसके फूलों की केसर देखकर इस वृक्ष का पुष्पित होना भर ही जान पाते थे।
राजा ने इस स्थविर का जनता में फैला यशःशब्द सुनकर, उनको सम्मान करने हेतु निमन्त्रण दिया, दूत भेजने पर भी जब स्थविर नहीं आये तो राजा ने उस ग्राम की दूध पीते बच्चों वाली सभी स्त्रियों के स्तन बैंधवा दिये कि "जब तक स्थविर यहाँ आकर हमें दर्शन नहीं देंगे तब तक कोई बच्चा दूध नहीं पी सकेगा।" तब स्थविर उन बच्चों पर अनुग्रह करके महाग्राम (राजधानी) पहुंचे। राजा ने स्थविर का आगमन सुनकर, अपने अधीनस्थ लोगों को आदेश दिया-"जाओ! स्थविर को सम्मानपूर्वक अन्दर लाओ; मैं उनसे सदाचार की दीक्षा लूँगा।" यों राजा ने स्थविर को अन्त:पुर में बुलाकर उनका यथोचित प्रणाम-वन्दना-सम्मान कर भोजन करा कर, यह कहा-"भन्ते! आज अब समय नहीं है, कल मैं आप से शील की दीक्षा लूँगा।" वह स्थविर का पात्र सम्मान-प्रदर्शनार्थ हाथ में ले अपनी रानी के साथ कुछ दूर जाकर वहाँ स्थविर को प्रणाम कर वापस लौट आया । स्थविर ने भी "राजा ने प्रणाम किया या रानी ने'-यह विना ही देखे 'महाराज! सुखी रहें-यह आशीर्वाद दिया। यों, सात दिन बीत गये। तब साथ के भिक्षुओं ने स्थविर से पूछा-"भन्ते, आप राजा या रानीदोनों में से किसी के द्वारा प्रणाम करने पर दोनों को ही 'महाराज! सुखी रहें' यही आशीर्वाद क्यों देते हैं?" स्थविर ने कहा-"आयुष्मानो! राजा या रानी में मैं कोई भेद (व्यवस्थापन-विवेक) नहीं कर पात।" स्थविर के ऐसा कहे जाने पर, सप्ताह भर समय बीतने पर, राजा ने सोचकर कि "स्थविर को यहाँ रहना कष्टकर लग रहा है" उनकी ससम्मान विदाई कर दी। स्थविर पुनः कुरण्डक महालेण जाकर रात्रि के समय चंक्रमण करने लगे। उस नागकेशर का अधिवासी देवता हाथ में मशाल