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१. सीलनिदेस
५७ अतिपरिसुद्धं पाकटं अहोसि। थेरो "किं नु मे अज कम्मट्ठानं अतिविय पकासती" ति अत्तमनो मज्झिमयामसमनन्तरं सकलं पब्बतं उन्नादयन्तो अरहत्तं पापुणि। तस्मा अञ्जो पि अत्तत्थकामो कुलपुत्तो
मकटो व अरम्हि वने भन्तमिगो विय। बालो विय च उत्रस्तो न भवे लोललोचनो॥ अधो खिपेय्य चक्खूनि युगमत्तदसो सिया।
वनमकटलोलस्स न चित्तस्स वसं वजे"॥ महामित्तत्थरस्सापि मातु विसगण्डकरोगो उप्पज्जि, धीता पिस्सा भिक्खुनीसु पब्बजिता होति। सा तं आह-"गच्छ, अय्ये, भातु सन्तिकं गन्त्वा मम अफासुकभावं आरोचेत्वा भेसज्जं आहरा" ति। सा गन्त्वा आरोचेसि। थेरो-"नाहं मूलभेसज्जादीनि संहरित्वा भेसज्जं पचितुं जानामि, अपि च ते भेसजं आचिक्खिस्सं-'अहं यतो पब्बजितो, ततो पट्ठाय न मया लोभसहगतेन चित्तेन इन्द्रियानि भिन्दित्वा विसभागरूपं ओलोकितपुब्बं, इमिना सच्चवचनेन मातुया मे फासु होतु', गच्छ इदं वत्वा उपासिकाय सरीरं परिमजा" ति।सा गन्त्वा इममत्थं आरोचेत्वा तथा अकासि। उपासिकाय तं खणं येव गण्डो फेणपिण्डो विय विलीयित्वा अन्तरधायि, सा उट्ठहित्वा "सचे सम्मासम्बुद्धो धरेय्य, कस्मा मम पुत्तसदिसस्स भिक्खुनो जालविचित्रेन हत्थेन सीसं न परामसेय्या" ति अत्तमनवाचं निच्छारेसि। तस्मा(दण्डदीपिका) लेकर उनके सामने खड़ा हो गया। तभी उनका कर्मस्थान (ध्यान का विषय) अत्यधि । रूप में प्रकाशित हुआ । स्थविर ने सोचा-"आज मेरा यह कर्मस्थान अन्य दिन की अपेक्षा अकि क्यों प्रकाशित हो रहा है?" यों सोचते हुए उन्होंने प्रसन्न मन से रात्रि के मध्यम प्रहर में अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया । अतः दूसरे स्वहितचिन्तक कुलपुत्र को भी
जङ्गल में बन्दर के समान, या वन में बहके मृग की तरह, या बाल (मूर्ख) की तरह भयभीत व चञ्चल नेत्रों वाला नहीं होना चाहिये।। १।।
साधक आँखों को नीचा रख, मार्ग में मात्र चार हाथ की दूरी तक देखने वाला हो। वह वनवासी चञ्चल बन्दर की तरह अपने चित्त की चञ्चलता के फन्दे में न फंसे।।२।।
महामित्रस्थविर की माता को विषव्रण (जहरवाद फोड़ा) रोग हो गया था इसकी धीता (पुत्री) भी पहले ही भिक्षुणियों में प्रव्रजित हो चुकी थी। उस माता ने अपनी पुत्री से कहा-"आर्य! तूंजा और अपने भाई के पास जाकर मेरे इस रोग की चर्चा कर उससे इसकी औषध ले आ।" पुत्री ने जाकर स्थविर को सब कुछ बताया। स्थविर ने कहा-"मैं जड़ी-बूटियाँ इकट्ठाकर उन्हें कूट-पीसकर
ओषधि बनाना नहीं जानता। फिर भी मैं तुम्हें उस रोग की ओषधि बता देता हूँ-'मैं जब से प्रव्रजित हुआ हूँ तब से आज तक मैंने लोभसहगत चित्त से अपनी इन्द्रियों का सम्बन्ध विच्छेद कर कुछ भी विसभाग (विसदृश) रूप को (जिसे देखने से कामराग उत्पन्न होता है) कभी नहीं देखा-मेरे इस वचन को कह कर माता के शरीर पर अपना हाथ मसल देना।" उस पुत्री ने वापस जाकर उक्त वचन कहकर, जैसा स्थविर ने बताया था वैसे ही किया। उपासिका (माता) का वह विषव्रण उसी समय जल के बुलबुले की तरह फूट कर कुछ ही क्षण में ठीक हो गया। तब उसने उठकर अपने आनन्दमय हृदयोद्गार इस प्रकार प्रकट किये-"यदि आज सम्यक्सम्बुद्ध होते तो वे क्या मेरे पुत्रसमान इस भिक्षु के शिर को उत्कृष्ट रेखाजाल से अलंकृत अपने हाथ से नहीं सहलाते।"