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विसुद्धिमग्ग कुलपुत्तमानी अञ्जो पि पब्बजित्वान सासने। मित्तत्थेरो व तिट्टेय्य वरे इन्द्रियसंवरे ।।
(३) आजीवपारिसुद्धिसम्पादनविधि ३५. यथा पन इन्द्रियसंवरो सतिया, तथा वीरियेन आजीवपारिसुद्धि सम्पादेतब्बा। वीरियसाधना हि सा, सम्मारद्धवीरियस्स मिच्छाजीवप्पहानसम्भवतो। तस्मा अनेसनं अप्पटिरूपं पहाय वीरियेन पिण्डपातचरियादीहि सम्माएसनाहि एसा सम्पादेतब्बा, परिसुद्धप्पादे येव पच्चये पटिसेवमानेन अपरिसुद्धप्पादे आसीविसे विय परिवज्जयता । तत्थ अपरिग्गहितधुतङ्गस्स सङ्घतो, गणतो, धम्मदेसनादीहि चस्स गुणेहि पसन्नानं गिहीनं सन्तिका उप्पन्ना पच्चया परिसुझुप्पादा नाम। पिण्डपातचरियादीहि पन अतिपरिसुद्धप्पादा येव। परिग्गहीतधुतङ्गस्स पिण्डपात-चरियादीहि धुतगुणे चस्स पसन्नानं सन्तिका धुतङ्गनियमानुलोमेन उप्पन्ना परिसुद्धप्पादा नाम। एकव्याधिवूपसमत्थं चस्स पूतिहरीटकीचतुमधुरेसु उप्पनेसु"चतुमधुरं अजे पिसब्रह्मचारिनो परिभुञ्जिस्सन्ती"ति चिन्तेत्वा हरीटकीखण्डमेव परिभुञ्जमानस्स धुतङ्गसमादानं पतिरूपं होति। एस हि "उत्तमअरियवंसिको भिक्खू" ति वुच्चति।
ये पनेते चीवरादयो पच्चया, तेसु यस्स कस्सचि भिक्खुनो आजीवं परिसोधेन्तस्स चीवरे च पिण्डपाते च निमित्तोभासपरिकथावित्तियो न वट्टन्ति। सेनासने पन अपरिग्गहितधुतङ्गस्स निमित्तोभासपरिकथा वट्टन्ति ।
इसलिये
अपने में कुलपुत्र (श्रेष्ठकुलोत्पत्ति) का अभिमान करने वाले किसी दूसरे व्यक्ति को भी बुद्धधर्म में दीक्षा लेकर महामित्र स्थविर के समान इन्द्रियसंवर में सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये ।। (३) आजीवपारिशुद्धिशीलसम्पादनविधि
३५. जैसे इन्द्रियसंवर सम्यक्स्मृति के सहारे भावित किया जाता है, ऐसे ही वीर्य के सहारे आजीवपरिशुद्धि की भी भावना (साधना) करनी चाहिये । वह आजीवपरिशुद्धि वीर्यसाधना वाली है; क्योंकि जिसने भलीभाँति वीर्य (उद्योग) का सहारा ले लिया है, उसी से उसकी मिथ्या (गलत) आजीविका का प्राण सम्भव है। अतः अनुचित अन्वेषण का त्याग कर, पिण्डपातचर्या आदि सम्यगेषणाओं से इस वीर्य की साधना करनी चाहिये; परिशुद्धरूप से उत्पन्न (प्राप्त) प्रत्ययों का ही उपभोग (=प्रतिसेवन) करने से एवं अपरिशुद्धरूप से उत्पन्न (प्रत्ययों) को सर्प (आशीविष) के समान छोड़ कर । उनमें, धुताग न धारण किये हुए भिक्षु के सब से, गण से धर्मदेशना आदि गुणों के कारण इससे प्रसन्न गृहस्थों के पास से उत्पन्न (प्राप्स) प्रत्यय 'परिशुद्ध उत्पाद' कहलाते हैं। भिक्षाटन आदि से प्राप्त प्रत्यय तो अतिपरिशुद्ध है ही। (उधर) धुतान ग्रहण किये हुए भिक्षु के भिक्षाटन आदि से एवं उसके गुणों से प्रसन्न गृहस्थों से धुतान नियमानुकूल प्राप्त प्रत्यय भी परिशुद्ध उत्पाद' ही कहे जाते हैं। यदि किसी एक रोग के शमन हेतु वह (उपर्युक्त भिक्षु) गोमूत्र में भिगोयी हरे (पूतिहरीतकी) व चार मधुर द्रव्य (१.घी, २. मक्खन, ३. मधु एवं ४.शर्करा) प्राप्त होने पर, ये चार मधुर तो मेरे अन्य सब्रह्मचारी खा लेंगे'-यह सोचकर हर का टुकड़ा ही खाता है तो उसका वह कार्य धुताग-ग्रहण के अनुकूल ही होता है। लोक में उसकी 'यह उत्तम आर्यवंश का भिक्षु है'-ऐसी यशोगाथा फैलने लगती है। .
जो ये चीवर आदि प्रत्यय हैं उनमें चीवर व पिण्डपात के विषय में आजीवपरिशुद्धि करने