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१. सीलनिद्देस
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तत्थ निमित्तं नाम सेनासनत्थं भूमिपरिकम्मादीनि करोन्तस्स " किं भन्ते करियति, को कारापेती" ति गिहीहि वुत्ते "न कोची" ति पटिवचनं, यं वा पन पि एवरूपं निमित्तकम्मं । ओभासो नाम “उपासका, तुम्हे कुहिं वसथा " ति ?" पासादे, भन्ते" ति । "भिक्खूनं पन उपासका पासादो न वट्टती" ति वचनं, यं वा पन पि एवरूपं ओभासकम्मं । परिकथा नाम “भिक्खुसङ्घस्स सेनासनं सम्बाधं " ति वचनं, या वा पनञ्ज पि एवरूपा परियायकथा । सज्जे सब्बं पि वट्टति । तथा उप्पन्नं पन भेसज्जं रोगे वूपसन्ते परिभुञ्जितुं वति न वट्टतीति ?
तत्थ विनयधरा " भगवता द्वारं दिन्नं, तस्मा वट्टती" ति वदन्ति । सुत्तन्तिका पन - " किञ्चापि आपत्ति न होति आजीवं पन कोपेति, तस्मा न वट्टति" इच्चेव वदन्ति । यो पन भगवता अनुज्ञाता पि निमित्तोभासपरिकथाविञ्ञत्तियो अकरोन्तो अप्पिच्छतादिगुणे येव निस्साय जीवितक्खये पि पच्चुपट्ठिते अञ्ञत्रेव ओभासादीहि उप्पन्नपच्चये पटिसेवति, एस "परमसल्लेखवुत्ती" ति वुच्चति, सेय्यथा पि थेरो सारिपुत्तो । ३६. सो किरायस्मा एकस्मि समये पविवेकं ब्रूहयमानो महामोग्गल्लानत्थेरेन सद्धिं अञ्ञतरस्मि अरज्ञ विहरति, अथस्स एकस्मि दिवसे उदरवाताबाधो उप्पज्जित्वा अतिदुक्खं जसि । महामोग्गल्लानत्थेरो सायन्हसमये तस्सायस्मतो उपट्ठानं गतो । थेरं निपन्नं दिस्वा तं
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वाले भिक्षु को निमित्त, अवभास, परिकथा एवं विज्ञप्ति विहित नहीं हैं; किन्तु शयनासन के विषय में, जिसने घुताङ्ग का ग्रहण न किया हो ऐसे भिक्षु को निमित्त, अवभास एवं परिकथा विहित हैं।
वहाँ निमित्त कहलाता है - शयनासन के लिये भूमि ठीक-ठाक कराने वाले भिक्षु का, ' भन्ते! क्या करवा रहे हैं?' या 'यह कौन करवा रहा है?' - गृहस्थों द्वारा ऐसा पूछने पर 'कोई नहीं' - ऐसा उत्तर: या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त कर्म । अवभास ( व्यङ्ग्य मारना ) कहलाता है-" उपासको ! तुम कहाँ रहते हो ?", "भन्ते! प्रासाद में ।" "पर, उपासको ! रहने के लिये भिक्षुओं को प्रासाद कहाँ मिले !" - इस तरह का, या अन्य ऐसा ही अवभास कर्म। परिकथा - " भिक्षुसङ्घ को शयनासन की परेशांनी "- ऐसे वचन को या इसी तरह के अन्य कथन को 'परिकथा' कहते हैं। किन्तु औषध के सम्बन्ध में सब कुछ विहित है।
यहाँ प्रश्न यह है कि औषध प्राप्त होने पर रोग के शान्त होने पर भी, उसका उपयोग करना उचित है? वहाँ विनयधर (विनय को प्रमाण मानने वाले) भिक्षुओं द्वारा यह समाधान किया गया है“भगवान् ने छूट (=अवकाश, द्वार) दे रखी है, इसलिये उसका उपयोग शास्त्रानुमोदित ही है । " परन्तु यहाँ सौत्रान्तिक (सूत्र को प्रमाण मानने वाले) भिक्षु कहते हैं- 'यद्यपि आपत्ति तो कुछ नहीं प्रमाणित होती, परन्तु आजीविका दूषित (कुपित) हो जाती है, अतः विहित ( शास्त्रानुमोदित ) नहीं है।"
और जो भगवान् द्वारा (शयनासन, भैषज्य आदि के सम्बन्ध में) अनुज्ञात निमित्त, अवभास, परिकथा आदि भी न करते हुए, अल्पेच्छुकता आदि गुणों के कारण, प्राणों पर सङ्कट आने पर भी, अवभास आदि से उत्पन्न प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों का ही सेवन करता है वह 'परमसल्लेखवृत्ति' (कठोर तपस्वी) कहलाता है, जैसे कि स्थविर सारिपुत्र ।
३६. एक समय वे (स्थविर सारिपुत्र) प्रविवेक (गण छोड़कर एकान्त में रहने के सुख) में वृद्धि हेतु महामोग्गलान स्थविर के साथ किसी जङ्गल में साधना कर रहे थे। एक दिन उनके पेट में वातव्याधि रोग उभर आया, उन्हें बहुत पीड़ा होने लगी। सायङ्काल महामोग्गलान आयुष्मान् सारिपुत्र