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________________ ६० विसुद्धिमग्ग पवत्तिं पुच्छित्वा "पुब्बे ते, आवुसो, केन फासु होती"ति पुच्छि। थेरो आह-"गिहकाले मे, आवुसो, माता सप्पिमधुसकरादीहि योजेत्वा असम्भिन्नखीरपायासं अदासि, तेन मे फारौँ ति। सो पि आयस्मा "होतु, आवुसो, सचे मय्हं वा तुम्हं वा पुञ्ज अस्थि, अप्पेव नाम स्वे लभिस्सामा" ति आह। इमं पन नेसं कथासल्लापं चङ्कमनकोटियं रुक्खे अधिवत्था देवता सुत्वा "अय्यस्स पायासंउप्पादेस्सामी"ति तावदेव थेरस्स उपट्ठाककुलं गन्त्वा जेट्ठपुत्तस्स सरीरं आविसित्वा पीळं जनेसि।अथस्स तिकिच्छानिमित्तं सन्निपतिते आतके आह-"सचे स्वे थेरस्स एवरूपं नाम पायासं पटियादेथ मुञ्चिस्सामी" ति। ते "तया अवुत्ते पि मयं थेरानं निबद्ध भिक्खं देमा" ति वत्वा दुतियदिवसे तथारूपं पायासं पटियादियिंसु। महामोग्गल्लानत्थेरो पातो व आगन्त्वा "आवुसो, याव अहं पिण्डाय चरित्वा आगच्छामि, ताव इधेव होही" ति वत्वा गामं पाविसि। ते मनुस्सा पच्चुग्गन्त्वा थेरस्स पत्तं गहेत्वा वुत्तप्पकारस्स पायासस्स पूरेत्वा अदंसु। थेरो गमनाकारं दस्सेसि। ते "भुञ्जथ, भन्ते, तुम्हे, अपरं पि दस्सामा" ति थेरं भोजेत्वा पुन पत्तपूरं अदंसु । थेरो गन्त्वा "हन्दावुसो सारिपुत्त, परिभञ्जा" ति उपनामेसि। थेरो पि तं दिस्वा "अतिमनापो पायासो, कथं नु खो उप्पन्नो" ति चिन्तेन्तो तस्स उप्पत्तिमूलं दिस्वा आह-"आवुसो मोग्गल्लान, अपरिभोगारहो पिण्डपातो" ति। सो पायस्मा "मादिसेन नाम आभतं पिण्डपातं न परिभुञ्जती" ति चित्तं पि अनुप्पादेत्वा एकवचनेनेव पत्तं मुखवट्टियं गहेत्वा एकमन्ते निक्कुज्जेसि। पायासस्स सह को देखने गये। स्थविर को रुग्ण देख उनके शरीर की दशा पूछने लगे। सारिपुत्र ने कहा"आयुष्मन्! गृहस्थाश्रम में रहते समय भी कभी यह रोग मुझे उभरा था। उस समय मेरी माता ने मुझे घी--मधु-शर्करा मिलाकर दी थी, उससे मैं स्वस्थ हो गया था।" आयुष्मान् मोग्गल्लान ने कहा"ठीक है, आयुष्मन्! यदि तुम्हारे या मेरे भाग्य में होगा तो कल यह औषध-द्रव्य हम पा ही लेगें।' इनकी इस बातचीत को वहीं पास में खड़े वृक्ष का अधिवासी देवता सुन रहा था। सुनकर उसने सोचा-"आर्य के लिये खीर की व्यवस्था करूँगा।" (ऐसा सोचकर) उसी ने स्थविर के सेवककुल में जाकर ज्येष्ठ पुत्र के शरीर में प्रवेश कर उसे पीड़ित कर उत्पात मचाया और उसकी चिकित्सा के लिये एकत्र हुए सम्बन्धियों से उसने कहा-"यदि कल स्थविर के लिये ऐसी खीर बना दो तो इसे छोड़ दूंगा।" उन्होंने "आपके आदेश विना भी हम तो स्थविरों को नित्य बँधी हुई भिक्षा देते हैं"-इस तरह कह कर दूसरे दिन खीर बनवायी। उधर महामोग्गल्लान स्थविर ने प्रातः ही आकर-"आयुष्मन्! जब तक मैं न जाऊँ तब तक तुम यहीं रहना"-यह कहकर वे ग्राम में प्रविष्ट हुए। उन मनुष्यों ने आगे बढ़कर स्थविर से पात्र लेकर इसमें खीर भर कर उनके वापस दे दिया । स्थविर चलने को उद्यत हुए। उन्होंने “भन्ते! आप खाइये: (ले जाने के लिये) और भी दे देंगे।" ऐसा कहकर स्थविर को खिला कर पुनः पात्र भर कर दे दिया ।स्थविर ने वापस जाकर सारिपुत्र से कहा-"आयुष्मन् सारिपुत्र! खीर लाया हूँ, इसे खाओ!" स्थविर सारिपुत्र ने वह खीर देखकर कहा-"खीर तो बहुत अच्छी दिखायी दे रही है, कहाँ प्राप्त हुई?" यों पूछते हुए, स्वयं ही दिव्य दृष्टि से देखकर समग्र प्रकरण को मूलतः (आदि से) समझते हुए पुनः बोले-"आयुष्मन् मोग्गल्लान! यह भिक्षा तो खाने योग्य नहीं है" "आयुष्मान् मोग्गल्लान ने मेरे जैसे द्वारा लायी गयी भिक्षा को भी खाने योग्य नहीं समझा" यो सोचकर उस खीर की तरफ से चित्त . हटाकर एक ही बार (प्रयास) में पात्र को मुँह की तरफ पकड़ कर एक तरफ ओंधा कर दिया। उस
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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