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________________ १. सीलनिद्देस ६१ "" भूमियं पतिट्ठाना थेरस्स आबाधो अन्तरधायि, ततो पट्ठाय पञ्चचत्तालीस वस्सानि न पुन उपज्जि । ततो महामोग्गल्लानं आह - ' 'आवुसो, वचीविञ्ञत्तिं निस्साय उप्पन्नो पायासो अन्तेसु निक्खमित्वा भूमियं चरन्तेसु पि परिभुञ्जितुं अयुत्तरूपो" ति । इमं च उदानं उदानेसि"वचीविञ्ञत्तिविष्फारा उप्पन्नं मधुपायसं । सचे भुत्तो भवेय्याहं साजीवो गरहितो मम ॥ यदि पि मे अन्तगुणं निक्खमित्वा बहि चरे । नेव भिन्देय्यमाजीवं चजमानो पि जीवितं ॥ आराम सकं चित्तं विवज्जेमि अनेसनं । नाहं बुद्धप्पटिकुटुं काहामि च अनेसनं" ति ॥ चिरगुम्बवासिक अम्बखादकमहातिस्सत्थेरवत्थु पि चेत्थ कथेतब्बं । एवं सब्बथापि अनेसनाय चित्तं पि अजनेत्वा विचक्खणो । आजीवं परिसोधेय्य सद्धापब्बजितो यती ति ॥ (४) पच्चयसन्निस्सितसीलसम्पादनविधि ३७. यथा च वीरियेन आजीवपारिसुद्धि, तथा पच्चयसन्निस्सितसीलं पञ्ञाय सम्पादेतब्बं । पञ्ञसाधनं हि तं पञ्ञवतो पच्चयेसु आदीनवानिसंसदस्सनसमत्थभावतो । खीर का जमीन पर गिरना था कि सारिपुत्र का वह रोग पूर्णतः निवृत्त हो गया। इतना ही नहीं, उसके बाद पैंतालीस' (या चालीस ?) वर्ष तक फिर कभी नहीं उठा। तत्पश्चात् सारिपुत्र ने महामोग्गलान स्थविर से कहा -": "आयुष्मन्! वाचिक विज्ञप्ति (कहकर बनवाने) के कारण प्राप्त खीर को, (अधिक भूख लगने के कारण) आँतों का (शरीर से बाहर निकलकर भूमिपात हो जाने पर भी, खाना उचित (विहित ) नहीं"- और साथ ही यह गाथा उद्गार भी प्रकट किया "वाचिक विज्ञप्ति (किसी भी तरह कह कर या कहलवा कर) के कारण प्राप्त मधुर खीर को यदि मैंने खा लिया होता तो मेरी यह परिशुद्ध आजीविका निन्दित हो गयी होती।। "चाहे मेरी आँते (अधिक भूख के कारण ) शरीर से बाहर निकल पड़ें तो भी मैं आजीव (के नियमों को) नहीं तोडूंगा। भले ही फिर मेरे प्राण ही क्यों न चले जायें।। "मैं अपने चित्त को वश (निग्रह) में रखता हूँ। अन्वेषण का त्याग करता हूँ। मैं भगवान् द्वारा निन्दित अन्वेषण को (तो) कभी नहीं करूँगा ।। " यहाँ चिरगुम्बवासी, केवल आम खा कर जीवन-यापन करने वाले, महातिष्य स्थविर के जीवनवृत्तान्त की कथा भी कहनी चाहिये। यों सभी प्रकार से धर्म में श्रद्धा रखकर प्रव्रजित, मतिमान् (विचक्षण) एवं संयत भिक्षु को, अन्वेषण से चित्त को सर्वथा हटाकर, आजीवपरिशुद्धि का सतत ध्यान रखना चाहिये ।। (४) प्रत्ययसन्निश्रितसम्पादनविधि ३७. और जैसे वीर्य के सहारे आजीवपरिशुद्धि की भावना बतायी गयी, वैसे ही १. इतिहास हमें बताता है कि सम्बोधिप्राप्ति के बाद भगवान् बुद्ध ने स्वयं ही पैंतालीस वर्ष जीवन लीला की । सारिपुत्र तो भगवान् के शिष्य थे और उनसे पूर्व ही परिनिर्वृत्त हो चुके थे। अतः यहाँ यह 'पैतालीस वर्ष' शब्द प्रामाणिक नहीं है। यह अधिक सम्भव है कि लिपिक-प्रमाद से यहाँ किसी अन्य सङ्ख्या के स्थान पर प्रयुक्त शब्द में 'पञ्च' जुड़ गया हो । - अनु० ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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