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________________ ६२ विसुद्धिमग्ग तस्मा पहाय पच्चयगेधं धम्मेन समेन उप्पन्ने पच्चये यथावुत्तेन विधिना पाय पच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जन्तेन सम्पादेतब्ब। तत्थ दुविधं पच्चवेक्खणं-पच्चयानं पटिलाभकाले च, परिभोगकाले च। पटिलाभकाले पि हि धातुवसेन वा पटिकूलवसेन वा पच्चवेक्खित्वा ठपितानि चीवरादीनि ततो उत्तरि परिभुञ्जन्तस्स अनवज्जो व परिभोगो, परिभोगकाले पि। तत्रायं सन्निट्ठानकरो विनिच्छयो चत्तारो हि परिभोगा-थेय्यपरिभोगो, इणपरिभोगो, दायज्जपरिभोगो, सामिपरिभोगो ति। तत्र सङ्घमज्झे पि निसीदित्वा परिभुञ्जन्तस्स दुस्सीलस्स परिभोगो थेय्यपरिभोगो नाम। सीलवतो अपच्चवेक्खित्वा परिभोगो इणपरिभोगो नाम। तस्मा चीवरं परिभोगे परिभोगे पच्चवेक्खितब्बं, पिण्डपातो आलोपे आलोपे, तथा असक्कोन्तेन पुरेभत्त-पच्छाभत्तपुरिमयाम-मज्झिमयामपुच्छिमयामेसु। सचस्स अपच्चवेक्खतो व अरुणं उग्गच्छति, इणपरिभोगट्ठाने तिट्ठति।सेनासनं पि परिभोगे परिभोगे पच्चवेक्खितब्बं । भेसज्जस्स पटिग्गहणे पि परिभोगे पि सतिपच्चयता व वति। एवं सन्ते पि पटिग्गहणे सतिं कत्वा परिभोगे अकरोन्तस्सेव आपत्ति, पटिग्गहणे पन सतिं अकत्वा परिभोगे करोन्तस्स अनापत्ति। चतुब्बिधा हि सुद्धि-देसनासुद्धि, संवरसुद्धि, परियेट्ठिसुद्धि, पच्वेक्षणसुद्धी ति। प्रत्ययसन्नितिशील को प्रज्ञा के सहारे भावित करना चाहिये। उसका साधन प्रज्ञा है; क्योंकि प्रज्ञावान् ही प्रत्ययों की सदोषता या निर्दोषता का सम्यक्तया प्रत्यवेक्षण करने में समर्थ है। इसलिये प्रत्ययों को यथोक्त ('सर्दी-गर्मी से बचने के लिये आदि प्रकार से पूर्वोक्त ) विधि से प्रज्ञा की सहायता से प्रत्यवेक्षण कर परिभोग करते हुए सम्पन्न करना चाहिये। इस प्रसङ्ग में, यह प्रत्यवेक्षण दो प्रकार है- १. प्रत्ययों के प्रतिलाभकाल में एवं २. उनके परिभोगकाल में । प्रतिलाभ-(प्राप्ति-) काल में भी धातुमनस्कार (प्रत्यय और उसका उपभोक्ता-दोनों ही धातुमात्र हैं) के रूप में 'ये सब चीवर आदि स्वयं घृणास्पद नहीं है, अपितु इस पूतिकाय के संसर्ग से वैसे हो जाते हैं। इस प्रतिकूल मनस्कार के साथ प्रत्यवेक्षण कर रखे गये चीवर आदि का बाद में परिभोग करनेवाले का परिभोग भी निर्दोष होता है। और परिभोगकाल में भी यही प्रत्यवेक्षण करे। (वस्तुतः) परिभोगकाल में प्रत्यवेक्षण करने से ही परिभोग निर्दोष होता है। वहाँ (उस प्रसङ्ग में) शास्त्रसम्मत असन्दिग्ध (सुनिश्चित) निर्णय यह है __परिभोग चार होते हैं- १. स्तेयपरिभोग, २. ऋणपरिभोग, ३. दायादपरिभोग एवं ४. स्वामि-परिभोग। इनमें, १. सङ्घ के बीच बैठकर भी दुःशीलतया परिभोग को 'स्तेयपरिभोग' कहते हैं; २.शीलवान् का प्रत्यवेक्षण के विना किया गया परिभोग 'ऋणपरिभोग' कहलाता है। अतः (क) चीवर को जब जब पहने-ओढ़े तब तब प्रत्यवेक्षण करना चाहिये । एवं (ख) भिक्षा के एक-एक ग्रास पर भी। ऐसा न कर सकने वाले को दोपहर के भोजन से पूर्व तथा भोजन के बाद प्रथम मध्यम एवं अन्तिम याम में प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। यदि उसके प्रत्यवेक्षण के विना ही सूर्योदय हो जाय तो वह ऋणपरिभोगी हो जाता है। (ग) शयनासन का भी जब जब परिभोग करे तब तब प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। (घ) भैषज्य के प्रतिग्रहण एवं परिभोग में भी स्मृति-प्रत्ययता (प्रत्ययविषयक स्मृति बनाये रखना) उचित है। एवं प्रतिग्रहण के समय में स्मृति का प्रयोग स्मरण करके परिभोग के समय वैसा न करने वाला दोषभाक् होता है; किन्तु प्रतिग्रहणकाल में स्मृति न करके भी परिभोगकाल में स्मृति का प्रयोग करने वालों को दोष नहीं लगता।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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