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१. सीलनिद्देस तत्थ देसनासुद्धि नाम पातिमोक्खसंवरसीलं । तं हि देसनाय सुज्झनतो देसनासुद्धी ति वुच्चति । संवरसुद्धि नाम इन्द्रियसंवरसीलं। तं हि "न पुन एवं करिस्सामी" ति चित्ताधिट्ठानसंवरेनेव सुज्झनतो संवरसुद्धी ति वुच्चति। परियेट्ठिसुद्धि नाम आजीवपारिसुद्धिसीलं । तं हि अनेसनं पहाय धम्मेन समेन पच्चये उप्पादेन्तस्स परियेसनाय सुद्धत्ता परियेट्ठिसुद्धी ति वुच्चति। पच्चवेक्खणसुद्धि नाम पच्चयसनिस्सितसील। तं हि वुत्तप्पकारेन पच्चवेक्खणेन सुज्झनतो पच्चवेक्खणसुद्धी ति वुच्चति। तेन वुत्तं-"पटिग्गहणे पन सतिं 'अकत्वा परिभोगे करोन्तस्स अनापत्ती" ति।
सक्तनं सेक्खानं पच्चयपरिभोगो दायज्जपरिभोगो नाम। ते हि भगवतो पुत्ता, तस्मा पितुसन्तकानं पच्चयानं दायादा हुत्वा ते पच्चये परिभञ्जन्ति। किं पनेते भगवतो पच्चये परिभुञ्जन्ति, उदाहु गिहीनं पच्चये परिभुञ्जन्ती ति? गिहीहि दिन्ना पि भगवता अनुतत्ता भगवतो सन्तका होन्ति, तस्मा भगवतो पच्चये परिभुञ्जन्ती ति वेदितब्बा। धम्मदायादसुत्तं (म० १-१८) चेत्थ साधकं । खीणासवानं परिभोगो सामिपरिभोगो नाम। ते हि तण्हाय दासब्यं अतीतत्ता सामिनो हुत्वा परिभुअन्ति।
इमेसु परिभोगेसु सामिपरिभोगो च दायजपरिभोगो च सब्बेसं वट्टति।इणपरिभोगो न वट्टति। थेय्यपरिभोगे कथा येव नित्थि। यो पनायं सीलवतो पच्चवेक्खितपरिभोगो, सो
(प्रकरणवश, परिभोग' के व्याख्यान के मध्य में ही,शुद्धि का भेद बता रहे हैं-) शुद्धि चार प्रकार की होती हैं- १.देशनाशुद्धि,२.संवरशुद्धि.३. पर्येषण (परीटि-शुद्धि एवं ४. प्रत्यवेक्षणशुद्धि । इनमें पूर्ववर्णित (पृष्ठ ५२) प्रातिमोक्षसंवर शील ही देशनाशुद्धि कहलाता है। इन्द्रियसंवरशील को संवरशुद्धि कहते हैं। वह 'पुनः ऐसा नहीं करूँगा'-इस तरह का चित्त का अधिष्ठान (सङ्कल्प) कर संवर से परिशुद्ध होने के कारण 'संवरशुद्धि' कही जाती है। परीटिशुद्धि आजीवपरिशुद्धि शील है। वह अन्वेषण को त्यागकर धर्मानुकूल प्रत्ययोत्पाद करने वाले के पर्येषण से शुद्धि के कारण 'परीष्टिशुद्धि' कहलाती है। तथा प्रत्ययसनिश्रित शील को प्रत्यवेक्षणशुद्धि कहते हैं। वह उक्त प्रकार के प्रत्यवेक्षण से शुद्धि के कारण 'प्रत्यवेक्षणशुद्धि कहलाती है। इसीलिये कहा गया है-"प्रतिग्रहणकाल में स्मृति न करके भी परिभोगकाल में स्मृति करने वाले को दोष नहीं होता।"
(यों शुद्धि का व्याख्यान पूर्ण हुआ, अब पुनः प्रसङ्गागत अवशिष्ट परिभोगों का व्याख्यान कर रहे हैं-)
३. सात शैक्ष्यों (४ मार्ग प्राप्त एवं ३ फल प्राप्त) का प्रत्ययपरिभोग दायादपरिमोग है। वे भगवान् के पुत्र हैं, अतः पिता के पास रहने वाले प्रत्ययों (सम्पत्ति) का, दायाद (उत्तराधिकारी) होकर ही, उपभोग करते हैं। किन्तु (प्रश्न उठता है-) क्या वे भगवान् के प्रत्ययों का परिभोग करते हैं? या गृहस्थों के प्रत्ययों का? (उत्तर है-) गृहस्थों द्वारा दिये होने पर भी भगवान् द्वारा स्वीकार कर लिये जाने से वे प्रत्यय भगवान् के ही कहलाते हैं। इसलिये 'वे भगवान् के प्रत्ययों का परिभोग करते हैं:ऐसा न समझना चाहिये। धम्मदायादसुत्त (म०नि० १-१८) का प्रकरण हमारे इस कथन में प्रमाण (साधक) है। ४. क्षीणास्रवों का परिभोग स्वामिपरिभोग है। वे तृष्णा की दासता से मुक्त (अतिक्रान्त) होकर, स्वामी बनकर उन प्रत्ययों का परिभोग करते हैं।
इन परिभोगों में दायादपरिभोग व स्वामिपरिभोग सभी के लिये विहित है। ऋणपरिभोग सबके लिये विहित नहीं है। स्तेयपरिभोग की तो बात ही नहीं! (हाँ, एक बात है-) शीलवान् का जो