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विसुद्धिमग्ग
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इणपरिभोगस्स पच्चनीकत्ता आणण्यपरिभोगो वा होति, दायज्जपरिभोगे येव वा सङ्ग्रहं गच्छति । सीलवा पि हि इमाय सिक्खाय समन्नागतत्ता सेक्खो त्वेव सङ्ख्यं गच्छति । इमेसु पन परिभोगेसु यस्मा सामिपरिभोगो अग्गो, तस्मा तं पत्थयमानेन भिक्खुना वृत्तप्पकाराय पच्चवेक्खणाय पच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जन्तेन पच्चयसन्निस्सितसीलं सम्पादेतब्बं । एवं करोन्तो हि किच्चकारी होति । वुत्तं पि चेतं
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" पिण्डं विहारं सयनासनं च आपं च सङ्घाटिरजप्पवाहनं । सुत्वान धम्मं सुगतेन देसितं सङ्घाय सेवे वरपञ्ञसावको ॥ तस्मा हि पिण्डे सयनासने च आपे च सङ्घाटिरजप्पवाहने । एते धम्मेसु अनूपलित्तो भिक्खु यथा पोक्खरे वारिबिन्दु ॥ " (खु०१-३२६)
कालेन लद्धा परतो अनुग्गहा खज्जेसु भोज्जेसु च सायनेसु च । मत्तं स ञ्ञ सततं उपट्ठितो वणस्स आलेपनरूहने यथा ॥ "कन्तारे पुत्तमंसं व अक्खस्सब्भञ्जनं यथा । एवं आहारे आहारं यापनत्थममुच्छितो " ति ॥
इमस्स च पच्चयसन्निस्सितसीलस्स परिपूरकारिताय भागिनेय्यसङ्घरक्खितसामणेरस्स वत्थु कथेतब्बं । सो हि सम्मा पच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जि । यथाह
प्रत्यवेक्षित परिभोग है, वह ऋणपरिभोग का विरोधी (प्रत्यनीक) होने से या तो ऋणरहित परिभोग होता है या दायादपरिभोग में ही संगृहीत हो जाता है। शीलवान् भी इस शिक्षा से समन्वागत होने के कारण 'शैक्ष्य' ही कहा जाता है। क्योंकि इन चारों परिभोगों में स्वामिपरिभोग श्रेष्ठ है, अतः उस की कामना वाले भिक्षु को उसे उक्त प्रकार के प्रत्यवेक्षण से प्रत्यवेक्षित करके परिभोग करते हुए प्रत्ययसन्निश्रित शील का सम्पादन करना चाहिये। ऐसा करने वाला ही 'कृत्यकारी' होता है। (त्रिपिटक में) कहा भी है
"पिण्डपात (भोजन), विहार (साधनास्थल), शयनासन, जल एवं सङ्घाटि आदि से धूल झाड़ते समय श्रेष्ठ प्रज्ञावान् श्रावक सुगत (बुद्ध) द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्मरण कर या सुन कर तदनुसार प्रत्यवेक्षण के साथ परिभोग करे ।
"ऐसा करने से भोजनादि (उपर्युक्त) धर्मों में, भिक्षु उसी तरह लिप्त (आसक्त) नहीं हो पाता, जैसे पद्मपत्र पर जलबिन्दु ।" (खु०१-३२६)
"दूसरों की कृपा से समय पर मिले खाद्य एवं भोज्य पदार्थ तथा शयनासन में सर्वदा उपस्थितस्मृति एवं प्रत्यवेक्षक रहते हुए उनका शास्त्रविहित मात्रा में उपभोग जाने रखना चाहिये; जैसे कि व्रण का लेपन (मरहम लगाना) आदि जानना आवश्यक होता है। "जैसे कभी कभी सब सुविधाओं से शून्य निर्जन अरण्य प्रदेश (कान्तार) में पुत्र का मांस तक खाने की स्थिति आ जाती है या गाड़ी के पहिये की धुरी में तैल डालना पड़ता है; इसी तरह आहारकाल में प्रमादरहित एवं अमूर्च्छित ( अमुग्ध) होकर जीवनयापन के लिये आहार का उपभोग करे।"
और इस प्रत्यसन्निश्रितशील की पूर्ति में उत्साहवर्धक भागिनेय सङ्घरक्षित श्रामणेर की (त्रिपिटक में आयी ) कथा का दृष्टान्त देना चाहिये। वह श्रामणेर सम्यक्प्रत्यवेक्षणानन्तर आहार का परिभोग करता था। जैसा कि कहा गया है