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________________ १. सीलनिद्देस " उपज्झायो मं भुञ्जमानं सालिकूटं सुनिब्बुतं । ' मा हेव त्वं सामणेर जिव्हं झापेसि असञ्ञतो' ॥ उपज्झायस्स वचो सुत्वा संवेगमलभिं तदा । एकासने निसीदित्वा अरहत्तं अपापुणिं ॥ सोहं परिपुण्णसङ्कप्पो चन्दो पन्नरसो यथा । सब्बासवपरिक्खीणो नत्थि दानि पुनब्भवो " ति ॥ तस्मा अञ्ञ पि दुक्खस्स पत्थयन्तो परिक्खयं । योनिसो पच्चवेक्खित्वा पटिसेवेथ पच्चये ति ॥ एवं पातिमोक्खसंवरसीलादिवसेन चतुब्बिधं ॥ पठमसीलपञ्चकं ६५ ( १ ) परियन्तपारिसुद्धिसीलं ३८. पञ्चविधकोट्ठासस्स पठमपञ्चके अनुपसम्पन्नसीलादिवसेन अत्थो वेदितब्बो । वृत्तं तं पटिसम्भिदायं "कतमं परियन्तपारिसुद्धिसीलं ? अनुपसम्पन्नानं परियन्तसिक्खापदानं, इदं परियन्तपारिसुद्धिसीलं । कतमं अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं ? उपसम्पन्नानं अपरियन्तसिक्खापदानं, इदं अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं । कतमं परिपुण्णपारिसुद्धिसीलं ? पुथुज्जनकल्याणकानं कुसलधम्मे त्तानं सेक्खपरियन्ते परिपूरकारीनं काये च जीविते च अनपेक्खानं परिच्चत्तजीवितानं, इदं परिपुण्णपारिसुद्धिसीलं । कतमं अपरामट्ठपारिसुद्धिसीलं ? सत्तन्नं सेक्खानं, इदं अपरामट्ठ "मेरे उपाध्याय ने मुझको, शालि धान का ठीक तरह से सिद्ध, ठण्ढा भात (सालिकूट) खाते देखकर, कहा-' श्रामणेर ! कहीं ऐसा न हो कि तुम असंयत होकर यह भात खाते समय अपनी जीभ जला बैठो।' “उपाध्याय के ये वचन सुनकर मुझे उसी समय ऐसा सन्देह (व्यग्रता या वैराग्य) उत्पन्न हुआ । और मैंने एक ही आसन में बैठे-बैठे अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया । "वह मैं (अब) पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान परिपूर्णसङ्कल्प हूँ। मेरे सभी आश्रव क्षीण हो चुके हैं, अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा ।" अतः अपने दुःखों का अन्त चाहने वाले अन्य भिक्षु को भी सम्यक्प्रत्यवेक्षण कर के ही प्रत्ययों का प्रतिसेवन (उपभोग) करना चाहिये ।। यो प्रातिमोक्षसवर आदि भेद के कारण शील चार प्रकार का होता है ।। प्रथम शीलपञ्चक (१) पर्यन्तपरिशुद्धशील- ३८. शील का पाँच प्रकार से विभाजन करते समय प्रथम पञ्चक में अनुपसम्पन्न शील आदि के अनुसार अर्थ समझना चाहिये। पटिसम्भिदामग्ग में कहा भी है '(१) यह पर्यन्तपरिशुद्धि शील कौन सा है ? अनुपसम्पन्नों (जिन्होंने उपसम्पदा ग्रहण नहीं की है) के लिये पर्यन्त शिक्षापदों (के उपदेश) का शील ही 'पर्यन्तपरिशुद्धिशील' कहलाता है। (२) अपर्यन्तपरिशुद्धिशील क्या है? कल्याणकर्मों के सङ्कल्पक ( सच्चरित्र), कुशल धर्मों के संग्रहेच्छु एवं काय तथा जीवन की अपेक्षा (परवाह ) न रखते हुए उसके त्याग तक भी सन्नद्ध पृथग्जनों द्वारा पर्यन्त पूर्ण किया जाने वाला शील परिपूर्णपरिशुद्धिशील है । (३) अपरामृष्टपरिशुद्धिशील क्या है?
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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