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________________ विसुद्धिमग्ग पारिसुद्धिसीलं। कतमं पटिप्पस्सद्धिपारिसुद्धिसीलं? तथागतसावकानं खीणासवानं पच्चेकबुद्धानं तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं, इदं पटिप्पस्सद्धिपारिसुद्धिसीलं" ति (खु०५-४७)। . तत्थ अनुपसम्पन्नानं सीलं गणनवसेन सपरियन्तत्ता परियन्तपारिसुद्धिसीलं ति वेदितब्बं । उपसम्पत्रानं नव कोटिसहस्सानि. असीति सतकोटिया। पास सतसहस्सानि छत्तिंसा च पुनापरे । एते संवरविनया सम्बुद्धेन पकासिता। . पेय्यालमुखेन निद्दिट्ठा सिक्खा विनयसंवरे ति॥ (२) अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं ३९. एवं गणनवसेन सपरियन्तं पि अनवसेसवसेन समादानभावं च लाभयसजातिअङ्गजीवितवसेन अदिट्ठपरियन्तभावं च सन्धाय अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं ति वुत्तं, चिरगुम्बवासिकअम्बखादकमहातिस्सत्थेरस्स सीलमिव। तथा हि सो आयस्मा "धनं चजे अङ्गवरस्स हेतु अङ्गं चजे जीवितं रक्खमानो। अङ्गं धनं जीवितं चापि सब्बं चजे नरो धम्ममनुस्सरन्ती" ति॥ इमं सप्पुरिसानुस्सतिं अविजहन्तो जीवितसंसये पि सिक्खापदं अवीतिक्कम्म तदेव अपरियन्तपारिसुद्धिसीलं निस्साय उपासकस्स पिट्टिगतो व अरहत्तं पापुणि । यथाह "न पिता न पि ते माता न जाति न पि बन्धवो। सात शैक्ष्यों का शील अपराभृष्टपरिशुद्धि शील है। (४) प्रतिप्रश्रब्धिपरिशुद्धिशील क्या है? तथागत के क्षीणास्रव शिष्यों का, प्रत्येकबुद्धों का, तथागत अर्हत् सम्यक्सम्बुद्धों का शील प्रतिप्रश्रब्धिपरिशुद्धिशील है। ___ इनमें, अनुपसम्पन्नों के शील को गणना में परिमित (पर्यन्त) होने से पर्यन्तपरिशुद्धिशील कहते हैं।" उपसम्पन्नों के-नौ हजार करोड़, अस्सी सौ करोड़, पाच लाख, और छत्तीस-इतने संवर सम्यक्सम्बुद्ध द्वारा प्रकाशित किये गये हैं। जो पेय्यालं (पूर्ववत्) के माध्यम से विनयविभाग में निर्दिष्ट हैं।। (२) अपर्यन्तपरिशुद्धिशील- ३९. इस प्रकार गणनावशात् सपर्यन्तशील को भी ग्रहण करने एवं लाभ-यश-ज्ञाति-अङ्ग-जीवन (प्राण) के रूप में अदृष्टपर्यन्त (जिसकी सीमा न आँकी जा सके) होने के कारण अपर्यन्तपरिशुद्धि शील कहा गया है। इसके उदाहरण में चिरगुम्बवासी आम्रखादक महातिप्य स्थविर का शीलपालन कहा जा सकता है। जैसा कि उस आयुष्मान् ने "अपने श्रेष्ठ अङ्ग की रक्षा हेतु धन का मोह नहीं करना चाहिये। अपने प्राणों की रक्षा में अपने एक अङ्ग के नाश की भी परवाह नहीं करना चाहिये।" इस अभियुक्तोक्ति (सत्पुरुषानुस्मृति) का परित्याग करते हुए, प्राण जाने का सन्देह होने पर भी शिक्षापदों का उल्लङ्घन न कर उसी अपर्यन्तपरिशुद्धिशील के आधार पर, उपासक द्वारा अपनी पीठ फेरते ही अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया। जैसा कि कहा है "यहाँ न तो कोई तेरा पिता है, न तेरी माता, न तेरा सम्बन्धी है, न कोई बन्धु-बान्धव
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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