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________________ १.सीलनिद्देस करोतेतादिसं किच्चं सीलवन्तस्स कारणा॥ संवेगं जनयित्वान सम्मसित्वान योनिसो। तस्स पिट्ठिगतो सन्तो अरहत्तं अपापुणी" ति ।। (३) परिपुण्णपारिसुद्धिसीलं ४०. पुथुजनकल्याणकानं सीलं उपसम्पदतो पट्ठाय सुधोतजातिमणि विय सुपरिकम्मकतसुवण्णं विय च अतिपरिसुद्धत्ता चित्तुप्पादमत्तकेन पि मलेन विरहितं अरहत्तस्सेव पदट्ठानं होति, तस्मा परिपुण्णपारिसुद्धी ति वुच्चति, महासङ्घरक्खितभागिनेय्यसङ्कक्खितत्थेरानं विय। महासङ्घरक्खितत्थेरं किर अतिकन्तसट्ठिवस्सं मरणमञ्चे निपन्नं भिक्खुसङ्घो लोकुत्तराधिगमं पुच्छि। थेरो-"नत्थि मे लोकुत्तरधम्मो" ति आह । अथस्स उपट्ठाको दहरभिक्खु आह-"भन्ते, तुम्हे परिनिब्बुता ति समन्ता द्वादसयोजना मनुस्सा सन्निपतिता तुम्हाकं पुथुज्जनकालकिरियाय महाजनस्स विप्पटिसारो भविस्सती" ति। "आवुसो, अहं मेत्तेय्यं भगवन्तं पस्सिस्सामी ति न विपस्सनं पट्ठपेसिं। तेन हि मं निसीदापेत्वा ओकासं करोही" ति। सो थेरं निसीदापेत्वा बहि निक्खन्तो। थेरो तस्स सह निक्खमना व अरहत्तं पत्वा अच्छरिकाय सञ्ज अदासि। सङ्घो सन्निपतित्वा आह-"भन्ते, एवरूपे मरणकाले लोकुत्तरधम्मं निब्बत्तेन्ता दुकरं करित्था" ति। "नावुसो, एतं दुकरं, अपि च वो दुक्करं आचिक्खिस्सामि-'अहं आवुसो, पब्बजितकालतो पट्ठाय असतिया अाणपकतं कम्म नाम न पस्सामी" ति। केवल शीलवान होने के कारण तुमने ऐसा दुष्कर कार्य कर डाला। और अपने में संवेग (वैराग्य) पैदा कर, धर्मो का सूक्ष्म विश्लेषण कर उसके पीठ फेरते-फेरते ही तुमने अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया।" (३) परिपूर्णपारिशुद्धिशील ४०. कल्याणकर्मच्छुक पृथग्जनों का शील, उपसम्पदा ग्रहण करने के समय से (=पट्ठाय) आगे भी, अच्छी तरह धोयो उच्च जाति की मणि के समान, या भलाभाँति तपाये गये सुवर्ण के समान, अतिपरिशुद्धि होने से अकुशल चित्तोत्पादमात्र द्वारा भी उत्पन्न होने वाले, मूल से रहित अर्हत्त्व का ही कारण (पदस्थान) होता है। इसलिये यह परिपूर्णपरिशुद्धि शील कहा जाता है। इसमें महासङ्घरक्षित एवं भागिनेय सबरक्षित स्थविरों का उदाहरण देना चाहिये। महासकरक्षित स्थविर से, जो कि साठ वर्ष पार कर चुके थे और मृत्युशैय्या पर लेटे हुए थे, भिक्षुसङ्घ ने उनकी लोकोत्तरधर्म की अधिगति के विषय में पूछा स्थविर ने कहा-'मुझे अभी लोकात्तर धर्म (अर्हत्त्व) प्राप्त नहीं हुआ है।" तब उनके सेवक (उपट्ठाक) तरुण भिक्षु ने कहा-"भन्ते! आपको परिनिर्वृत जानकर चारों ओर के द्वादश योजन से दर्शनार्थी श्रद्धालु जन एकत्र हुए हैं। आप के इस पृथग्जनसदृश देहपात से बहुत लोगों को निराश होगी!" (स्थविर ने कहा-)"आयुष्मन्! मैं तो मैत्रेय भगवान् के दर्शन करने की प्रतीक्षा में था, इसीलिये मैंने विपश्यना नहीं की। (अब तुम ऐसा करो कि) मुझे सहारा देकर बैठा दो और कुछ देर मुझे एकान्त दे दो।" वह तरुण भिक्षु स्थविर को बैठा कर बाहर निकल गया। स्थविर ने उसके निकलने के साथ ही अर्हत्त्व प्राप्त कर चुटकी (=अक्षरा) बजा कर संकेत किया । सङ्घ ने एकत्र होकर स्थविर से कहा-"भन्ते! इस प्रकार मरण-काल उपस्थित होने पर आपने लोकोत्तर धर्म प्राप्त कर अत्यन्त दुष्कर कार्य किया!" नहीं, आयुष्मानो! यह क्या दुष्कर है! अपितु मैं आपको अपना दुष्कर कार्य बताऊँ कि आयुष्मानो! मैने प्रव्रज्या के दिन से लेकर
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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