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________________ ६८ विसुद्धिमग्ग भागिनेय्यो पिस्स पञ्ञासवस्सकाले एवमेव अरहत्तं पापुणी ति । "अप्पस्सुतो पि चे होति सीलेसु असमाहितो । उभयेन नं गरहन्ति सीलतो च सुतेन च ॥ अप्पस्सुतो पि चे होति सीलेसु सुसमाहितो । सीलको नं पसंसन्ति तस्सं सम्पज्जते सुतं ॥ बहुस्सुतो पि चे होति सीलेसु असमाहितो । सीलतो नं गरहन्ति नास्स सम्पज्जते सुतं ॥ बहुस्सुतो पि चे होति सीलेसु सुसमाहितो ।' उभयेन नं पसंसन्ति सीलेन च सुतेन च ॥ बहुस्सुतं धम्मधरं सप बुद्धसावकं । नेक्खं जम्बोनदस्सेव को तं निन्दितुमरहति । देवापि नं पसंसन्ति ब्रह्मना पि पसंसितो" ति ॥ (अं० २-९) (४) अपरामट्ठपारिसुद्धिसीलं ४१. सेक्खानं पन सीलं दिट्ठिवसेन अपरामट्ठत्ता, पुथुज्जनानं वा पन रागवसेन अपामट्ठसीलं अपरामट्ठपारिसुद्धी ति वेदितब्बं, कुटुम्बियपुत्ततिस्सत्थेरस्स सीलं विय। सो हि आयस्मा तथारूपं सीलं निस्साय अरहत्ते पतिट्ठातुकामो वेरिके आह'उभो पादानि भिन्दित्वा सञ्ञपेस्सामि वो अहं । आज तक कभी भी स्वयं को स्मृतिरहित रख, अज्ञानपूर्वक कोई प्रमाद (विनयपालन में कमी) करते नहीं पाया ।" इनके भागिनेय (सङ्घरक्षित स्थविर) ने भी पचास वर्ष की अवस्था में इसी तरह अर्हत्त्व पा लिया था। "यदि किसी ने धर्मोपदेश का अल्प श्रवण ही किया है और अपने शीलाचार में असंयमी भी है तो वह शील और श्रुत-दोनों ही दृष्टियों से जनता द्वारा गर्हित समझा जाता है ।। "यदि वह अल्पश्रुत होने पर भी संयम में तो तत्पर ही रहता हो तो उसके इस शील के कारण उसकी सभी प्रशंसा करते हैं, यों उसका वह अल्प धर्म-श्रवण भी सम्पन्न (सफल) हो जाता है ।। इसके विपरीत, यदि कोई बहुश्रुत हो परन्तु उसका अपनी इन्द्रियों पर संयम न हो, तो इस शील के अभाव के कारण जनता में वह निन्दा का पात्र ही रहता है। और उसकी बहुश्रुतता भी तब उसके किसी उपयोग में नहीं आती । "हाँ, कोई बहुश्रुत भी हो और दृढ़ इन्द्रियसंयमी भी हो तो उसकी, इस बहुश्रुतता व समाहितता- दोनों के कारण, समाज में अत्यधिक प्रशंसा होती है ।। (४) अपरामृष्टपरिशुद्धिशील ४१. शैक्ष्यों का शील (-दृष्टि) मिथ्यादृष्टि से अपरामृष्ट होने के कारण एवं पृथग्जनों का शील राग से अपरामृष्ट शील अपरामृष्ट परिशुद्ध जानना चाहिये जैसे कौटुम्बिकपुत्र तिष्य स्थविर का था । उस आयुष्मान् ने अपने उस प्रकार के शील के आधार पर अर्हत्त्व में प्रतिष्ठित होने की इच्छा से अपने विरोधियों को कहा था
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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