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________________ १. सीलनिद्देस अट्टियामि हरायामि सरागमरणं अहं" ति॥ "एवाहं चिन्तयित्वा सम्मसित्वान योनिसो। सम्पत्ते अरुणुग्गम्हि अरहत्तं अपापुणिं"॥ ति॥ (दी० ४०-२-३३९) अञ्जतरो पि महाथेरो बाळ्हगिलानो सहत्था आहारं पि परिभुञ्जितुं असक्कोन्तो सके मुत्तकरीसे पलिपन्नो सम्परिवत्तति, तं दिस्वा अञ्जतरो दहरो-"अहो, दुक्खा जीवितसङ्घारा" ति आह। तमेनं महाथेरो आह-"अहं, आवुसो, इदानि मिय्यमानो सग्गसम्पत्ति लभिस्सामि, नत्थि मे एत्थ संसयो, इमं पन सील भिन्दित्वा लद्धसम्पत्ति नाम सिक्खं पच्चक्खाय पटिलद्धगिहिभावसदिसी" ति वत्वा "सीलेनेव सद्धिं मरिस्सामी" ति तत्थेव निपनो तमेव रोगं सम्मसन्तो अरहत्तं पत्वा भिक्खुसङ्घस्स इमाहि गाथाहि ब्याकासि "फुट्ठस्स मे अञ्जतरेन व्याधिना रोगेन बाळ्हं दुखितस्स रुप्पतो। परिसुस्सति खिप्पमिदं कळेवरं पुष्पं यथा पंसुनि आतपे कतं॥ अजनं जञसङ्घातं असुचिं सुचिसम्मत। नानाकुणपपरिपूरं जञरूपं अपस्सतो॥ धिरत्थु मं आतुरं पूतिकायं दुग्गन्धियं असुचिं व्याधिधम्मं । यत्थप्पमत्ता अधिमुच्छिता पजा हापेन्ति मग्गं सुगतूपपत्तिया" ति॥ "अपने दोनों पैरों को तोड़कर मैं उन लोगों के पास प्रतिभू (जमानत) के रूप में रखता हूँ। मैं (राग का क्षय किये विना) अपना रागसहित देहपात (मरण) नहीं चाहता; क्योंकि इसमें मुझे लज्जा व घृणा का अनुभव हो रहा है।" ___ "मैंने यह सोचते हुए भलीभाँति मनन करते हुए, सूर्योदय के साथ ही अर्हत्त्व प्राप्त कर लिया ।।" एक अन्य महास्थविर भी, जो कि अत्यधिक रोग के कारण भोजन करने में भी असमर्थ हो गये थे, अपने मल-मूत्र में लिपटे, शयनासन पर किसी तरह करवट बदलते रहते थे। उन्हें देखकर दूसरे किसी भिक्षु के मुख से निकल पड़ा-"अरे! ये जीवनसंस्कार कितने दुःखद हैं"। उसको इन महास्थविर ने कहा-"आयुष्मन्! मैं यदि अभी मर जाऊँ तो मुझे स्वर्ग-सुख तो मिल ही जायगाइसमें सन्देह नहीं, परन्तु इस शील को भङ्ग कर प्राप्त सम्पत्ति (भिक्षुत्व-) शिक्षा को त्याग कर गृहस्थ हो जाने के समान है अतः मैं तो शील के साथ ही अपना देहपात करूँगा।"- ऐसा कहकर उन्होंने वहीं लेटे लेटे उसी रोग के विषय में मनन करते हुए अर्हत्त्व प्राप्त कर वहाँ उपस्थित भिक्षुसच से ये गाथाएँ कहीं "मुझे एक रोग होने पर, उस रोग से अतिशय दुःखित एवं पीड़ित मेरा यह शरीर पड़ा पड़ा सूख रहा है, जैसे धूप या धूल में पड़ा फूल सूख जाता है।। ("यह शरीर) जिसे लोग मनोहर (सुन्दर) कहते हैं, पर वस्तुतः वह मनोहर नहीं है; उसे लोग 'पवित्र' कहते हैं, पर वस्तुतः वह पवित्र नहीं है। क्योंकि यह तो तरह-तरह के मलों से भरा पड़ा है। (केवल) यथार्थ को न देख पाने वालों के लिये ही यह मनोहर या पवित्र हो सकता है। "मेरे इस व्याधिग्रस्त, दुर्गन्धमय, अपवित्र स्वभावतः सतत रोगों का शिकार होने वाले (व्याधिधर्मा) अपवित्र शरीर को धिक्कार (धिरत्यु) है, जिसके विषय में प्रमत्त (अधिमूच्छित) होकर लोग सुगति-प्राप्ति का मार्ग छोड़ बैठते हैं।।"
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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