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१.सीलनिद्देस
४१ वेठना ति वुत्तं होति। अथ वा-उच्छुहत्थं दिस्वा "कुतो आभतं, उपासका" ति पुच्छति। उच्छुखेत्ततो, भन्ते" ति।"किं तत्थ उच्छु मधुरं" ति? "खादित्वा, भन्ते, जानितब्बं" ति। "न, उपासक, भिक्खुस्स'उच्छु देथा ति वत्तुं वट्टती"ति।या एवरूपा निब्बेठेन्तस्सा पि वेठनकथा, सा उन्नहना। सब्बतोभागेन पुनप्पुनं उन्नहना समुन्नहना।
उक्काचना ति। "एतं कुलं मं येव जानाति। सचे एत्थ देय्यधम्मो उप्पज्जति, मय्हमेव देती" ति एवं उक्खिपित्वा काचना उकाचना। उद्दीपना ति वुत्तं होति। तेलकन्दरिकवत्थु चेत्थ वत्तब्बं । सब्बतोभागेन पन पुनप्पुनं उक्काचना समुक्काचना।
अनुप्पियभाणिता ति। सच्चानुरूपं वा धम्मानुरूपं वा अनपलोकेत्वा पुनप्पुनं पियभणनमेव। चाटुकम्यता ति। नीचवुत्तिता अत्तानं हे?तो हेट्टतो ठपेत्वा वत्तनं।मुग्गसूप्यता ति। मुग्गसूपसदिसता। यथा हि मुग्गेसु पच्चमानेसु कोचिदेव न पच्चति, अवसेसा पच्चन्ति, एवं यस्स पुग्गलस्स वचने किञ्चिदेव सच्चं होति, सेसं अलीकं, अयं पुग्गलो मुग्गसूप्यो ति वुच्चति, तस्स भावो मुग्गसूप्यता। पारिभट्यता ति। पारिभट्यभावो। यो हि कुलदारके धाति विय सयं अङ्केन वा खन्धेन वा परिभटति, धारेती ति अत्थो, तस्स परिभट्टस्स कम्म पारिभटयं, पारिभट्यस्स भावो पारिभटयता ति।
नेमित्तिकत्तानिइसे निमित्तं ति यं किञ्चि परेसं पच्चयदानसञोजनकं कायवचीकम्म। निमित्तकम्मं ति। खादनीयं गहेत्वा गच्छन्ते दिस्वा "किं खादनीयं लभित्था" ति आदिना
थे अब वे क्यों नहीं देते?"- इस प्रकार कहते हुए जब तक उपासक यह न कह दे कि "देंगे, ते! हम भी देंगे! इधर हम अन्य कार्यों में बहुत व्यस्त थे, अतः दान के लिये अवसर नहीं मिल रहा था" तब तक उपासक को बातों में फँसाये रखना अथवा किसी उपासक के हाथ में ईख (इक्षु) देखकर भिक्षु उससे पूछे-"उपासक! आप किधर से आ रहे हैं?" उपासक उत्तर में कहे-"ईख के खेत से, भन्ते!" तब वह पूछे-"क्या उस खेत का ईख मोठा है?" "भन्ते! यह तो आपको इसे खाने से ही ज्ञात होगा।" "उपासक! भिक्षु के लिये यह कहना उचित नहीं है कि मुझे चूसने के लिये कुछ ईख दो!" इस तरह जो स्पष्ट होते हुए मनोभाव को उलझाने वाला संवाद है, वह 'उन्नहना' कहलाता है। यही संवाद यदि और भी सब तरफ से उलझाने वाली बातों से किया जाय तो उसे समुन्नहना कहते हैं।
उक्काचना- "यह कुल (परिवार) तो मुझे ही जानता है, यहाँ से यदि कुछ दान किया जाता है तो मुझको ही किया जाता है"-इस तरह देय वस्तु की प्राप्ति के लिये परोक्ष संकेत-'उत्काचना' कहलाता है। यहाँ तेलकन्दरिकवस्तु का दृष्टान्त देना चाहिये। और फिर यही संकेत सब तरफ से घेरते हुए कुछ अधिक ही किया जाय तो उसे समुक्काचना कहते हैं।
अनुप्पियमाणिता- बात को सत्य या धर्म के अनुरूप न देखकर (न होने पर) भी संवादी से बार दार प्रिय ही बोलना। चाटुकम्यता चाटुकारिता। हीनवृत्ति संवादी से अपने को बार बार नीचा दिखाते हुए उससे उसकी प्रशंसात्मक बातें करना । मुग्गसूप्यता-मूंग की दाल के समान । जैसे मूंगों को पकाते समय उसमें से कुछ ही मूंग पकें, बाकी कच्चे रह जाँय ; उसी तरह किसी की बात में कुछ ही स ई हो, अधिकतर झूठ हो, वह पुद्गल 'मुग्गसूप्य' कहलाता है, मुग्गसूप्य का भाव (होना) हुआ मुग्गसूप्यता । पारिमट्यता-परिभट्यता (सेवा-टहल) का होना । जो भिक्षु किसी के परिवार के बच्चों को गोद में या कन्धों पर लिये रहता है, घुमाता रहता है, उनके सेवक का कार्य करता है-यह सेवावृत्ति (सेवकाई) ही पारिभट्यता (परिभृत्यता) है। - उक्त पालिपाठ के नैमित्तिकतानिर्देश में-निमित्त कहते हैं दूसरों से प्रत्यय के दान की प्राप्ति