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विसुद्धिमग्ग सण्ठपना ति। अभिसङ्घरणा। पासादिकभावकरणं ति वुत्तं होति। भाकुटिका ति। पधानपुरिमट्टितभावदस्सनेन भाकुटिकरणं। मुखसङ्कोचो ति वुत्तं होति। भाकुटिकरणं सीलमस्सा ति भाकुटिको, भाकुटिकस्स भावो भाकुटियं। कुहना ति। विम्हापना। कुहस्स आयना कुहायना। कुहितस्स भावो कुहितत्तं ति।
३१. लपनानिद्देसे आलपना ति। विहारं आगते मनुस्से दिस्वा "किमत्थाय भोन्तो आगता? किं भिक्खू निमन्तितं? यदि एवं, गच्छथ रे, अहं पच्छतो पत्तं गहेत्वा आगच्छामी" ति एवं आदितो व लपना। अथ वा अत्तानं उपनेत्वा "अहं तिस्सो, मयि राजा पसन्नो, मयि असुको च असुको च राजमहामत्तो पसन्नो" ति एवं अत्तुपनायिका लपना आलपना। लपना ति। पुट्ठस्स सतो वुत्तप्पकारमेव लपनं। सल्लपना ति । गहपतिकानं उक्कण्ठने भीतस्स ओकासं दत्वा दत्वा सुट्ट लपना। उल्लपना ति। महाकुटुम्बिको महानाविको महादानपती ति एवं उद्धं कत्वा लपना। समुल्लपना ति। सब्बतोभागेन उद्धं कत्वा लपना।
उन्नहना ति। "उपासका पुब्बे ईदिसे काले नवदानं देथ, इदानि किं न देथा" तिं एवं याव"दस्साम, भन्ते, ओकासं न लभामा" ति आदीनि वदन्ति, ताव उद्धं उद्धं नहना,
स्थापना । ठपना-स्थापना या स्थापना का ढंग (आकार)। सण्ठपना (संस्थापना)-अभिसंस्करण, अर्थात् अपने प्रति दूसरों का प्रेम (प्रसाद) भाव पैदा करना । भाकुटिका-अपना उत्कर्ष प्रकट करने हेतु भृकुटि या मुख से नानाविध हाव-भाव दिखाना जिसका शील (अभ्यास, प्रकृति या स्वरूप) हो उसे 'भाकुटिक' कहते हैं। 'मुख के हाव-भाव में तरह तरह के परिवर्तन करते रहना'- इस शब्द का सरल अर्थ है। कुहना-आचर्य (विस्मय) चकित करना। कुह (=ढोंगी) का आयना (=ढोंग) कुहायना; एवं जो ढोंग (कुह) किया गया हो उसका भाव कुहितत्त कहलाता है।
(उस पालिपाठ के) लपनानिर्देश में-आलपना। बिहार में आये मनुष्यों को देखकर उनके विना पूछे यह कहे-"आप लोग क्यों आये हैं? क्या भिक्षुओं को निमन्त्रित करना है? यदि ऐसा हो तो तुम चलो; मैं, आप लोगों के पीछे ही पीछे, पात्र लेकर आ रहा हूँ"-ऐसी बातें 'लपना' (वाचालता) कहलाती हैं। अथवा-उन आदमियों के सामने अन्य भिक्षुओं से अपनी उत्कर्षता दिखाता हुआ यह कहे-"मेरा नाम तिष्य है, (मेरी चर्या से) मुझ पर राजा भी प्रसन्न है, और राजा के अमुक अमुक उच्च पदाधिकारी भी प्रसन्न हैं।" यह किसी को अपनी ओर आकृष्ट करने वाली बात 'आलपना' कहलाती है।
लपना- उन व्यक्तियों के पूछे जाने पर यदि कोई भिक्षु उनसे ऊपर कही जैसी ही बातें करे तो वह उसकी 'लपना' (वाचालता) कहलाती है।
सपना- अपने प्रति गृहपतियों की उत्कण्ठा जागृत करने के लिये उनसे संवाद करते हुए, जान बूझकर बीच में रुकते रुकते बातें करना। उल्लपना- अपनी प्रशंसा में अपने विषय में गृहस्थों से कहना कि 'प्रवज्या लेने से पूर्व गृहस्थ में मेरा भी बहुत कुटुम्ब था', 'मैं बहुत बड़ा नाविक था' 'मैं दानदाताओं में श्रेष्ठ था', या उन गृहस्थों की प्रशंसा में यह कहना कि 'आप तो बहुत बड़े कुटुम्ब वाले हैं', 'आप बहुत बड़े नाविक हैं' या 'आप श्रेष्ठ दानपति हैं। यों उत्कर्षताधायक बातें करना।
समुहपना- सब तरह से ऊपर उठाकर (बढ़ा-चढ़ाकर) बातें करना।
उन्नहना- स्वाभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हेतु तदर्थ प्रोत्साहित करनेवाली बातों से दूसरों को वाग्जाल में फंसाना । जैसे-"ऐसा अवसर आने पर पहले तो उपासक लोग बहुत अग्रदान दिया करते